बृहस्पति व्रत कथा - brhaspati vrat katha
बृहस्पतिवार व्रत का महत्व - brhaspativaar vrat ka mahatv
इस दिन बृहस्पति भगवान की पूजा की जाती है। इस व्रत को करने से मन की मुरादें पूरी होती हैं और बृहस्पति भगवान प्रसन्न होते हैं। धन-धान्य, सुख-सौभाग्य एवं विद्या की वृद्धि होती है। इस व्रत को करने वाला पुत्र-पौत्रादि आदि का सुख भोगता है। जो भी स्त्री-पुरुष इसकी कथा व पूजन मन, वाणी और कर्म से शुद्ध होकर करते हैं, बृहस्पति देव की कृपा से उनके सभी मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। कुंवारी कन्याओं को व्रत करने से अभीष्ट वर मिलता है।
Brahashpati vrat katha |
बृहस्पतिवार व्रत पूजन सामग्री - brhaspativaar vrat poojan saamagree
व्रत करने वालों को निम्नलिखित पूजन सामग्री की व्यवस्था करनी चाहिए - पीले रंग के पुष्प, चने की दाल, पीले रंग का वस्त्र, पीला पान, पीला आसन, बेसन के लड्डू, पीले चावल, पीली धारक पोशाक, गुड़, कपूर।
बृहस्पतिवार व्रत के पूजन की विधि - brhaspativaar vrat ke poojan kee vidhi
सबसे पहले विष्णु भगवान की चांदी अथवा पीतल की बनी प्रतिमा को लेकर गंगाजल में स्नान कराएं। इसके पश्चात उसे पीले आसन पर प्रतिष्ठित करें। थाली में कपूर पान के ऊपर रखकर जलाकर पीले चावल अर्ध्य देकर वारना चाहिए। आरती के उपरान्त लड्डू का भोग लगाइए। पूजन करके कथा श्रवण करें। इस व्रत का सांयकाल में फलाहार का ही विधान है।फलाहार अथवा भोजन करने से पूर्व अपनी सामर्थ्यानुसार ब्राह्मणों को भोजन अवश्य कराएं। भोजन बिना नमक का ही होना चाहिए। इस व्रत में पीली वस्तुओं का ही विधान है। ब्राह्मणों को कराए जाने वाला भोजन भी पीला ही होना चाहिए। इस दिन पीली गाय के घी से बनाए गए पदार्थों से ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए। इस दिन पीली वस्तुओं के दान एवं भक्षण का विशेष महत्व है। इस दिन पुरुषों को बाल दाढ़ी नहीं बनवानी चाहिए। नारियों को बिना सिर भिगोए, स्नान करने, केले के वृक्ष का पूजन करना चाहिए। क्षत्रियों में गहरवार एवं चन्देल इस दिन कोई शुभ यात्रा नहीं करते।
बृहस्पतिवार की व्रत कथा - brhaspativaar kee vrat katha
एक समय की बात है कि देवराज इन्द्र बड़े अहंकार से अपने सिंहासन पर बैठे थे। बहुत से देवता, ऋषि, गंधर्व, किन्नर आदि उनकी सभा में बैठे हुए थे।
जिस समय बृहस्पति देव वहाँ पर पहुंचे सबके सब उनके सम्मान में खड़े हो गए। लेकिन गर्व के कारण देवराज इन्द्र अपने सिंहासन से न उठे। यद्यपि अब से पूर्व यह सदैव उनका सम्मान किया करते थे।
देवताओं के गुरु बृहस्पति जी अपना अनादर समझते हुए वहाँ से तत्काल उठकर चल दिए। उनके जाने के पश्चात इन्द्र को अपनी भूल का पश्चाताप होने लगा। वह सोचने लगा। देखो मैंने अपने गुरुदेव का अपमान करके कितनी बड़ी भूल की है। गुरुदेव के आशीर्वाद से ही तो मुझे यह वैभव प्राप्त हुआ है। उनके क्रोध से पल भर में ही यह सब नष्ट हो जाएगा। मुझे इसी वक्त उनके पास पहुँचकर उनसे क्षमा याचना करनी चाहिए। मैं उनके कदमों में नतमस्तक होकर उनसे क्षमा माँगता हूँ ताकि उनका क्रोध शान्त हो जाए और मेरा कल्याण होए।
ऐसा विचार कर देवराज इन्द्र बृहस्पति देव से मिलने चल दिए। जब बृहस्पति देव ने अपने योग बल से यह जान लिया कि इन्द्र क्षमा माँगने हेतु मेरे पास आ रहे हैं, तब क्रोधवश उनसे भेंट करना उचित न मानकर वहां से अंतर्ध्यान हो गए। जब इन्द्र ने बृहस्पति देव को घर पर न पाया तो निराश होकर लौट आए।
जब दैत्यों के राजा वृषवर्षा को यह समाचार मिला तो उसने अपने गुरु शुक्राचार्य जी की आज्ञा से इन्द्रपुरी को चारों ओर से घेर लिया। देवता गुरु की कृपा न होने के कारण हारने व मार खाने लगे। तब उन्होंने ब्रह्मा जी को विनयपूर्वक सारा वृत्तांत कह सुनाया और कहा कि महाराज ! दैत्यों से हमें किसी प्रकार बचाइए।
तब ब्रह्माजी बोले, "तुमने बड़ा अपराध किया है जो गुरुदेव को क्रोधित कर दिया। अब तुम्हारा कल्याण इसी में हो सकता है कि त्वष्टा ब्राह्मण का पुत्र विश्वरूपा जो कि बड़ा तपस्वी एवं ज्ञानी है, उसे अपना पुरोहित बनाओ।"
यह वचन सुनकर देवराज इन्द्र त्वष्टा के पास गए और बड़े विनीत भाव से त्वष्टा से कहने लगे, "कृपा करके आप हमारे पुरोहित बन जाए, ताकि हमारा कल्याण हो।"
इस पर त्वष्टा ने उत्तर दिया, "पुरोहित बनने से तपोबल घट जाता है लेकिन तुम बहुत विनती कर रहे हो, इसलिए मेरा पुत्र विश्वरूपा पुरोहित बनकर तुम्हारी रक्षा करेगा।"
विश्वरूपा ने अपने पिता की आज्ञा से पुरोहित बनकर ऐसा ही यत्न किया कि प्रभु इच्छा से इन्द्र वृषवर्षा को युद्ध में जीतकर अपने इन्द्रासन पर विराजमान हुए। विश्वरूपा के तीन मुख थे। एक मुख से वह सोमपल्ली लता का रस निकालकर पीते थे। दूसरे मुख से वह मदिरापान करते थे और तीसरे मुख से अन्न ग्रहण करते थे।
इन्द्र ने कुछ दिनों के पश्चात कहा, "मैं आपकी कृपा से यज्ञ करना चाहता हूँ।"
विश्वरूपा की आज्ञा से यज्ञ आरम्भ हो गया। तभी एक दैत्य ने विश्वरूपा से कहा, "तुम्हारी माता दैत्य कन्या है, इसी कारण हमारे कल्याण के निमित्त एक आहुति दैत्य के नाम पर भी दे दिया करो, बड़े पुण्य की बात है।"
विश्वरूपा उस दैत्य का कहना मानकर आहुति देते समय दैत्य का नाम भी धीरे से लेने लगा। इस कारण यज्ञ करने से देवताओं का तेज नहीं बढ़ा। इन्द्र ने यह वृत्तांत जानते ही क्रोधित होकर विश्वरूपा के तीनों सिर काट डाले।
मद्यपान करने वाले से भंवरा, सोमपल्ली पीने वाले से कबूतर और अन्न खाने वाले से तीतर बन गया। विश्वरूपा के मरते ही इन्द्र का स्वरूप ब्रह्महत्या के प्रभाव से बदल गया। देवताओं के एक वर्ष पश्चाताप यज्ञ करने पर भी ब्रह्महत्या का पाप न छूटा, तो सभी देवताओं के प्रार्थना करने पर ब्रह्माजी बृहस्पति जी के सहित वहाँ आए। उन्होंने उस ब्रह्महत्या के चार भाग किए। उनमें से एक भाग पृथ्वी को दिया। इसी कारण कहीं कहीं पर पृथ्वी ऊँची नीची और बीज बोने के अयोग्य पाई जाती है। साथ ही ब्रह्माजी ने यह वरदान दिया, जहां पृथ्वी में गड्ढा होगा, कुछ समय पश्चात स्वयं भर जाया करेगा।
दूसरा भाग वृक्षों को दिया जिससे उनमें से गोंद बनकर बहता है। इसी कारण गूगल के अलावा सारे गोंद अशुद्ध माने गए हैं। वृक्षों को यह वरदान दिया कि उनके ऊपर से सूख जाने पर जड़ फिर फूट आती है।
तीसरा भाग नारियों को दिया। इसी कारण नारियाँ हर महीने रजस्वला होकर पहले दिन चांडालिनी, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी, तीसरे दिन धोबिन के समान रहकर चौथे दिन ही शुद्ध हो पाती हैं। उन्हें सन्तान प्राप्ति का वरदान दिया।चौथा भाग जल को दिया, जिससे फेन और सिवाल आदि जल के ऊपर आ जाते हैं। जल को यह वरदान मिला कि इसे जिस चीज में डाला जाएगा वह आकार में बढ़ जाएगी।
इस प्रकार इन्द्र को ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त किया। जो भी मनुष्य इस कथा को पढ़ता अथवा सुनता है, उसके सभी पाप बृहस्पति महाराज की अनुकम्पा से नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत को करने वाला इस लोक में सब प्रकार के सुखों को भोगता हुआ अन्त में विष्णुलोक को प्राप्त होता है। इस व्रत को करने वाले प्राणी जन्म जन्म जन्मान्तर के सभी प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं। वह पुत्र पौत्रादि व धन-धान्य के सुखों को भोगकर मोक्ष को प्राप्त होता है।
बोलो बृहस्पति देव जी की जय। गुरु महाराज जी की जय।
धन्यवाद।
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