सोलह सोमवार व्रत कथा(solah somvaar vrat katha)
सभी प्रकार के कष्टों से मुक्ति पाने हेतु सोमवार का व्रत विशेष रूप से लाभकारी है। सोमवार के व्रत तीन प्रकार के होते हैं- सोम प्रदोष, सोलह सोमवार तथा सामान्य प्रति सप्ताह आने वाले सोमवार। इन तीनों की पूजन की विधि लगभग समान है, लेकिन व्रत कथा एक दूसरे से अलग है।
solah somvaar vrat katha |
व्रत का महत्व - vrat ka mahatv
- प्रस्तुत व्रत भोले बाबा शिव शंकर को प्रसन्न करने हेतु किया जाता है। इस व्रत को विधि-विधान से करने वाले प्राणियों को अक्षत पुण्य लाभ की उपलब्धि होती है। वह धन-धान्य से युक्त एवं पुत्र-पौत्रादि के सुख को भोगता है। यदि बंध्या स्त्री इस व्रत को चार बार कर ले, तो उसे निश्चित ही पुत्र-रत्न की प्राप्ति होती है।यह व्रत सभी प्रकार के रोगों, कष्टों एवं बंधनों से मुक्ति प्रदान करने वाला है। इस व्रत को विधिपूर्वक करने से भोलेनाथ की कृपा से हमारे द्वारा किए हुए असंख्य एवं अक्षम्य अपराध भी क्षमा हो जाते हैं। इस प्रकार प्राणी इस लोक में सुखों को भोगता हुआ अन्त में शिवलोक को प्राप्त होता है।
पूजन सामग्री - poojan saamagree
सोलह सोमवार व्रत कथा के लिए निम्नलिखित सामग्री की व्यवस्था करना आवश्यक है-
- धूप,घी, सुपारी, गुड, दीप, बेलपत्र, अक्षत चावल ( साबुत चावल ), जनेऊ का जोड़ा।
पूजन की विधि - poojan kee vidhi
- पूजन से 1 दिन पहले अपने नाखून, केश आदि कटवाकर स्नानादि से निवृत्त होलें। व्रत के दिन केश विन्यास कराना पूर्णतः वर्जित है। तेल उबटन आदि का प्रयोग करना तथा पत्नी के साथ सहवास आदि करना पूर्णतः निषिद्ध माना गया है। व्रत वाले दिन प्रातःकाल उठकर भली-भांति स्नान करना चाहिए।
"देशकालौ संकीर्त्य अमुक कामना सिध्दाय व्रतं इदं करिष्यों"
इस तरह संकल्प लेने के उपरान्त
"महाकाय नमः, शूलिने नमः सम्भूते नमः"
इन मंत्रों से षोडषोपचार पूजन करके अपने परिवार सहित भगवान शिव का पूजन करना चाहिए।
पूर्वादि के क्रमानुसार,
"ब्राह्मणं पूजयामि, विष्णुं पूजयामि, स्कन्धं पूजयामि, महाकाले पूजयामि"
इस प्रकार आह्वान आदि उपचार से पूजा करके "चण्डाय नमः" मंत्र के द्वारा ईशान कोण में चण्डिका पूजन कीजिए, तदोपरांत प्रार्थना करनी चाहिए।
निम्नलिखित मंत्र का पाठ करें-
"दश भुजाय त्रिजेत्राय, पंच वक्त्राय शूलिने।
श्वेत वस्त्राय रूपाय, सुखोता भरणाय च।।
शंकराय महेशाय, उमासहिताय वर्तमान्।
त्राहि माम कृपया देवशरणः भव महेश्वरः।।"
इस प्रकार भगवान शिव की उपासना करके "नन्द केश्वराय नमः" मंत्र के द्वारा नन्दकेश्वर की पूजा करनी चाहिए। इसके उपरान्त पुष्प हाथ में लेकर निम्नलिखित विधि से अंग पूजा करनी चाहिए।
अंग पूजा विधि - ang pooja vidhi
देवाधि देवाय नमः, पादौ पूजयामि शंकराय नमः, जजे पूजयामि, शिवाथ नमः, जानुनी पूजयामि, शूलपाणये नमः, कण्ठं पूजयामि, स्थानवै नमः, स्तनी पूजयामि, नीलकण्ठाय नमः, श्री शिवाय नमः मुखं पूजयामि, त्रिनेत्राय नमः, नेत्रं पूजयामि, शशि भूषणाय नमः, मुकुट पूजयामि, देवाधि देवाय नमः सर्वांग पूजयामि।
भगवान शिव का ध्यान करते हुए अक्षत, बेलपत्र व पुष्प अर्पित कर भगवान शंकर की आराधना करें, दिन में केवल जल ही ग्रहण करें, आहार में केवल फलाहार ही करना चाहिए। अन्न ग्रहण करना पूर्णतः वर्जित है।
व्रत कथा - vrat katha
बहुत समय पहले की बात है भगवान शंकर व माता पार्वती भ्रमण करते हुए मृत्युलोक की अमरावती नगरी में जा पहुंचे। इस नगरी के राजा अमरदेव अत्यन्त पुण्यात्मा, दानशील एवं धार्मिक प्रवृत्ति के शिव भक्त थे।अमरदेव ने अपनी राजधानी में अत्यंत सुंदर शिवालय का निर्माण कराया। उसके भीतर एक दिव्य शिवलिंग को भी स्थापित कराया था। भगवान शिव की पूजा हेतु सुशर्मा नामक ब्राह्मण को नियुक्त किया था।
यह ब्राह्मण नित्य-प्रति गांजा, भांग, चरस आदि का सेवन किया करता था। यह अपना सम्पूर्ण समय दुष्कर्मों में ही बिताया करता था। इस पुजारी का ऐसा बुरा हाल देखकर पार्वती जी ने उससे कहा -" हे दुष्ट ! तूने मेरी पूजा, जप, तप का परित्याग करके पाप करना शुरू कर दिया है, मैं तुझे श्राप देती हूं कि तू कोढ़ी हो जाएगा।"
पार्वती जी का श्राप मिलते ही ब्राह्मण पुजारी कोढ़ी हो गया। वह कोढ़ से पीड़ित होकर नारकीय जीवन व्यतीत करने लगा। दैवयोग से एक दिन कुछ देवांगनाएं उनके पास आई और उसकी दीन दशा पर तरस खाकर पूछने लगीं, "क्यों भैया !तुम्हारा यह बुरा हाल कैसे हुआ हमें जानने की विशेष उत्कण्ठा है।"
सुशर्मा ने रो-रोकर देवांगनाओं से अपनी दुःखद आपबीती कह सुनाई। उसकी दयनीय स्थिति की जानकारी पाकर देवांगनाओं को उस पर दया आ गई। उन्होंने विप्र से कहा, "भैया ! यदि तुम इस कोढ़ से मुक्ति पाना चाहते हो, तो शंकर भगवान को प्रसन्न करके हेतु सोलह सोमवार का व्रत विधि-विधान से करो।"
यह सुनकर तो सुशर्मा ने कहा, "देवियों ! क्या आप मुझ पापी को इस व्रत के महत्व एवं विधि विधान को भी बताने की कृपा कर सकती हैं?"
उन्होंने सुशर्मा पर कृपा दृष्टि डालते हुए कहा, "इस व्रत को निरंतर सोलह सोमवार तक संपूर्ण श्रद्धा भक्ति पूर्वक बिना खंडित किये किया जाना चाहिए।
सर्वप्रथम स्नान करके पवित्र पोशाक धारण करें। तत्पश्चात अपनी सामर्थ्यानुसार दान पुण्य करना चाहिए। आधा सेर गेहूं का चूर्ण घी में भूनकर चूरमा तैयार करो। भगवान शंकर की मिट्टी की प्रतिमा बनाओ। जब प्रतिमा बन जाए तो शुद्ध जल से स्नान कराकर दूध, दही, रोली, चावल प्रशाद, फल एवं जनेऊ अर्पित करें। दण्डवत प्रणाम करके परिक्रमा करनी चाहिए।
इतना कार्य सम्पन्न करने के उपरांत एक भाग चूरमा भगवान शिव के पावन चरणों में समर्पित करें। उनसे सारे दुःखड़े दूर करने हेतु प्रार्थना करें - "हे दीनानाथ, भोलेशंकर ! अबकी बार अवश्य मुझ पापी का उद्धार कर दीजिए। मैं कान पकड़कर शपथपूर्वक प्रतिज्ञा करता हूँ कि भविष्य में कोई भी पाप करने का दुस्साहस नहीं करूंगा।
तदोपरान्त "ओउम् नमः शिवाय" मंत्र की एक माला का जाप करना चाहिए। शंकर भगवान की प्रतिमा को जल में विसर्जित कर दें। इसके पश्चात स्नान करके और शेष चूरमे के दो भागों में से एक भाग बिजार को प्रेम पूर्वक खिलाएं। एक भाग एकान्त में बैठकर स्वयं ग्रहण करें।
व्रत का उद्यापन - vrat ka udyaapan
व्रत की पूर्णता हेतु उद्यापन अवश्य करें। यत्नपूर्वक व्रत का उद्यापन करें। बैल के साहिल सोने के महादेव पार्वती अपनी सामर्थ्यानुसार बनाएं। इसमें वित्त शारयान करें शिवलिंगतोभद्र बनाकर जल से पूरित, दो श्वेत वस्त्रों से ढका हुआ, कलश रखना चाहिए। वेणुमय तांबे के पात्र को कलश पर स्थापित कर, उक्त कलश को उत्तम मंडल में रखें। कलश के ऊपर शिव पार्वती को स्थापित करके पूर्वोक्त मन्त्रों द्वारा पूजन करके दुपट्टा, यज्ञोपवीत अनेक किस्म के खाद्य पदार्थ एवं धान्य अर्पित करें। पुष्प-पत्रादि से मंडप को सुसज्जित करें।
रूई की शैया एवं दर्पण भगवान के सम्मुख रखें। गायन, वादन के साथ रात्रि में जागरण करना चाहिए। अपने गृह के अनुसार अग्नि स्थापित करें। तदुपरान्त मंत्रों के माध्यम से होंकरा एवं पलाश की लकड़ी से 108 बार घी, तिल व चावल आदि से पृथक-पृथक हवन करना चाहिए।
पूर्णाहुति करके हवन के अंत में सपत्नीक गुरु-पूजा, वस्त्र आभूषण, उत्तम ग्रह सामग्री एवं श्वेत कपिला दूध देने वाली, सवत्ला (बछड़े सहित) रत्नपुच्छा घण्टा आभूषणों से विभूषित दक्षिणा पूर्वक गाय ( शिबों ते प्रथिताम) बोलकर दें तथा निम्नलिखित मंत्रों का उच्चारण करना चाहिए।
धेनुवे जोगतां माता, नित्य विष्णुपदे स्थित्वा।
सवत्सा च भया दत्ता, पीयतां में सदा शिवः।।
इसके बाद 13 श्रेष्ठ विप्रो को प्रेम पूर्वक भोजन कराएं। वस्त्र, अलंकार व छत्र एवं दक्षिणा दें। ताम्र पात्र, फल, पकवान व अनेक विध भदथ से युक्त 13 घट, ब्राह्मणों को समर्पित करें।
"पूजा किए हुए देवता सम्पूर्ण सामग्री युक्त देवता को आप ग्रहण करें, ताकि मेरा व्रत पूर्ण हो। सदाशिव मुझ पर प्रसन्न रहें। तीनों जगत के स्वामी को मैं ग्रहण करता हूँ। शान्ति एवं कल्याण हो।" यह कहकर ब्राह्मण प्रतिमा को ग्रहण करें।
"हे देवाधिदेव ! इस व्रत को मैंने सम्पूर्ण भक्ति से सम्पन्न किया है। जाने-अनजाने में कोई कमी रह गई हो तो वह सम्पूर्ण हो।" इस प्रकार देवता व ब्राह्मण की बार-बार अर्चना-प्रार्थना करके धर्मयुक्त हों, बन्धु-बान्धबों सहित भोजन करना चाहिए।
इस प्रकार जो मनुष्य भगवान शंकर के इस व्रत को करता है, वह समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करता है। इस लोक में अभीष्ट सुख को भोगकर अन्त में उत्तम विमान में बैठकर शिवलोक को जाता है।
व्रत के उद्यापन की विधि बताकर देवांगनाओं ने कहा, "है पुजारी ! यदि कोई व्रत धारी इन सोमवार के बीच में किसी से झगड़े, झूठ बोले, किसी को कष्ट पहुंचाए, पाप दृष्टि रखे, दान ग्रहण करें, झूठे मुंह सोवे तो सुख के स्थान पर घोर कष्ट भोगेगा व उसके व्रत निष्फल रहेंगे।"
देवांगनाएं यह कहकर अंतर्ध्यान हो गई। पुजारी ने पवित्र मन से सोलह सोमवार विधि विधान से व्रत किए। इन्हीं व्रतों के प्रताप से पुजारी का कुष्ठ रोग दूर हो गया। उसका शरीर सोने के समान क्रांति युक्त हो गया।
धन्यवाद।
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