वास्तुशास्त्र    

वास्तु शास्त्र क्या है

वास्तु शब्द का अर्थ है- निवास करना। जिस भूमि पर व्यक्ति निवास करते हैं, उसे वास्तु कहा जाता है। वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत गृह निर्माण के बहुत सारे नियमों को बताया गया है। उनका पालन करने से व्यक्ति को अनेक प्रकार के लाभ होते हैं तथा स्वास्थ्य सम्बन्धित लाभ भी होते हैं। इसलिए मकान बनाते समय कुछ बातों का ध्यान रखना आवश्यक है।
वास्तु शास्त्र के अनुसार घर
vastu shastra

भूमि-परीक्षा-

मकान बनाते समय जिस भूमि पर मकान बना रहे हैं उस भूमि के मध्य एक हाथ लम्बा,एक हाथ चौड़ा एवं एक हाथ गहरा गड्ढा खोदे। खोदने के बाद उसमें से निकली हुई सारी मिट्टी फिर से उस गड्ढे में भर दे। यदि गड्ढा भरने के बाद में मिट्टी बच जाये तो वह भूमि उत्तम है और यदि गड्ढे के बराबर निकलती है तो वह भूमि मध्यम है और यदि गड्ढे से कम निकलती है तो वह भूमि अधम है।

भूमि की दूसरी परीक्षा-

जिस प्रकार से पहले बताया गया है उसी प्रकार से गड्ढा खोदकर उसमें पानी भर दें और उत्तर दिशा की ओर सौ कदम चले,फिर वापिस आकार देखें यदि गड्ढे में उतना ही पानी है तो वह उत्तम भूमि है। यदि पानी आधा रहे तो मध्यम भूमि है और यदि गड्ढे में थोड़ा पानी मिलता है तो वह अधम भूमि है। अधम भूमि में निवास करने से धन, स्वास्थ्य और सुख की हानि होती है। चूहों के बिल वाली, ऊसर, बाँबी वाली, फटी हुई, ऊबड़-खाबड़, गड्ढों वाली एवं टीलों वाली भूमि पर मकान नहीं बनाना चाहिए। जिस भूमि में गड्ढा खोदते समय भस्म, कोयला, राख, हड्डी, भूसा आदि निकले, उस भूमि पर मकान बनाने से रोग होते हैं एवं आयु का भी ह्रास होता है।

भूमि की सतह का परिक्षण-

पूर्व, उत्तर एवं ईशान दिशा में नीची भूमि सब प्रकार से ठीक होती है। आग्नेय, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य और मध्य में नीची भूमि रोगों को उत्पन्न करने वाली होती है। दक्षिण एवं आग्नेय के मध्य नीची एवं उत्तर और वायव्य के मध्य ऊँची भूमि रोग उत्पन्न करती है।

गृहारम्भ करने का समय-

वैशाख, श्रावण, कार्तिक, मार्गशीर्ष एवं फाल्गुन मास में गृहारम्भ करना चाहिये। इससे धन-धान्य तथा आरोग्य की प्राप्ति होती है। नींव खोदते समय यदि भूमि में से ईंट, पत्थर निकले तो आयु की वृद्धि होती है।

वास्तुपुरूष के मर्म -स्थान –

सिर, मुख, ह्रदय, दोनों स्तन और लिंग -ये वास्तुपुरूष के मर्म स्थान हैं। वास्तुपुरूष का सिर ‘शिखी’ में, मुख ‘आप्’ में, ह्रदय ‘ब्रह्मा’ में,  दोनों स्तन ‘पृथ्वीधर’ तथा ‘अर्यमा’ में और लिंग ‘इन्द्र’ तथा ‘जय’ में है। वास्तुपुरूष के जिस मर्म -स्थान में कील , खम्भा आदि गाड़ा जाएगा,  गृहस्वामी के उसी अंग में पीड़ा या रोग उत्पन्न हो जाएगा। वास्तुपुरूष का ह्रदय  (मध्य का ब्रह्म- स्थान ) अतिमर्म स्थान है । इस स्थान पर किसी दीवार, खम्भा आदि का निर्माण नहीं करना चाहिए । इस स्थान पर जूठे बर्तन, अपवित्र पदार्थ भी नहीं रखने चाहिये। ऐसा करने से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

मकान का आकार-

चौकोर एवं आयताकार मकान उत्तम होता है। आयताकार मकान में चौड़ाई की दुगुने से अधिक लम्बाई नहीं होनी चाहिऐ। कछुए के आकर वाला घर पीडादायक होता है। कुम्भ के आकर वाला घर कुष्ठरोगप्रदायक होता है। तीन या छः कोनेवाला घर आयु का क्षय करता है। आठ कोनेवाला घर रोग पैदा करता है। घर को किसी भी दिशा मे आगे नहीं बढ़ाना चाहिए। सभी दिशाओं में बराबर बढ़ाना चाहिये। यदि घर वायव्य दिशा में आगे बढ़ाया गया है तो वात-व्याधि होती है।दक्षिण दिशा में बढ़ाया घर मृत्यु-भर देता है। उत्तर दिशा में बढ़ाने पर रोग बढ़ते हैं।

घर के पास में वृक्ष-

आग्नेय दिशा में वट, पीपल, सेमल, पाकर एवं गुलर का वृक्ष होने से मृत्युदायक पीड़ा होती है। दक्षिण में पाकर-वृक्ष रोग देता है। उत्तर में गुलर वृक्ष होने से नेत्र रोग होता है। बेर, केला, अनार, पीपल, नीबूं ये जिस घर में होते हैं। उस घर की वृद्धि नहीं होती। घर के पास काँटे, दूधवाले वृक्ष हानिकारक हैं।पाकर, गूलर, बहेड़ा, पीपल, कपित्थ, बेर, निर्गुण्डी, इमली, कदम्ब, बेल, खजूर- ये सभी वृक्ष घर के पास अशुभ माने जाते हैं।

गृह निर्माण की उपयुक्त साम्रग्री-

 ईंट, लोहा, पत्थर, मिटृटी एवं लकड़ी- ये नये घर में नये ही लगने चाहिऐ। एक घर में प्रयोग की गयी लकड़ी दूसरे घर में लगाने से गृहस्वामी का नाश होता है। पीपल, कदम्ब, नीम, बहेड़ा, आम, पाकर, गूलर, रीठा, वट, ईमली, बबूल एवं सेमल के पेड़ की लकड़ी मकान के कामों में नहीं लेनी चाहिये। मन्दिर, राजमहल एवं मठों में पत्थर लगाना शुभ है, मकान में लगाना अशुभ है।

घर के पास अशुभ वस्तुएँ-

देवमन्दिर, कपटी, प्रधान का घर एवं चौराहे के समीप घर होने से भय, शोक तथा दुःख बना रहता है ।

घर में पानी का स्थान-

कुआँ या भूमि के अन्दर टंकी पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं ईशान दिशा में होनी चाहिये। जलाशय या बाहरी टंकी उत्तर या ईशान दिशा में होनी चाहिये। यदि दक्षिण दिशा में कुआँ हो तो अद्भुत रोग होता है। नैऋत्य दिशा में कुआँ होने से आयु घटती है।

मकान का मुख्य द्वार-

जिस दिशा में घर का मुख्य द्वार बनाना हो, उस तरफ की लम्बाई को बराबर नौ भागों में बाँटकर पाँच भाग दायें एवं तीन भाग बायें छोड़कर शेष बायीं ओर से चौथे भाग में द्वारा बनाना चाहिये। अन्दर से खड़े होकर दायां बायां देखते हैं। द्वार अपने आप खुलना या बन्द होना अशुभ है। द्वार के अपने-आप खुलने से मानसिक- रोग एवं दुःख होता है।

द्वार मार्ग पर व्यवधान-

मुख्य द्वार के सामने मार्ग या वृक्ष होने से गृहस्वामी को अनेक रोग होते हैं। कुआँ होने से मृगी एवं अतिसार रोग होता है।खम्भा एवं चबूतरा होने से मृत्यु होती है। बावड़ी होने से अतिसार एवं संनिपात रोग होता है। कुम्हार चक्र होने से ह्रदयरोग होता है। शिला होने से पथरीरोग होता है। भस्म होने से बवासीर रोग होता है। यदि घर की ऊँचाई से दुगुनी दूरी पर दोष वाली वस्तु हो तो उसका दोष समाप्त हो जाता है।

घर में कमरों की स्थिति-

यदि घर का एक कमरा पश्चिम में और एक कमरा उत्तर में हो तो वह घर के स्वामी के लिए मृत्युदायक होता है । इसी प्रकार यदि पूर्व और उत्तर दिशा में कमरा हो तो आयु का ह्रास होता है। पूर्व और दक्षिण दिशा में  कमरा हो तो वातरोग होता है। यदि पूर्व,  पश्चिम और उत्तर दिशा में कमरा हो, लेकिन दक्षिण में कमरा न हो तो सभी तरह के रोग होते हैं।

घर के आन्तरिक कक्ष का वास्तु 

स्नानघर ‘पूर्व’ में,  रसोई ‘आग्नेय’ में, शयनकक्ष ‘दक्षिण’ में , शस्त्रागार, सूतिकागृह, गृह सामग्री और बड़े भाई या पिता का कक्ष ‘नैऋत्य’ में, शौचालय ‘नैऋत्य’, ‘वायव्य’ या ‘दक्षिण- नैऋत्य’ में, भोजन करने का स्थान ‘पश्चिम’ में,  अन्न -भण्डार तथा पशु -गृह ‘वायव्य’में, पूजाघर ‘उत्तर’ या ‘ईशान’ में,  पानी रखने का स्थान ‘उत्तर’ या ‘ईशान में, धन का संग्रह ‘उत्तर’ में नृत्यशाला ‘पूर्व, पश्चिम, वायव्य या आग्नेय’ में होनी चाहिए । घर का भारी समान नैऋत्य दिशा में रखना चाहिए ।

ध्यान रखने योग्य आवश्यक बातें, वास्तु शास्त्र के नियम 

  • यदि ईशान दिशा में पति-पत्नी सोयगें तो रोग होना अवश्यंभावी है।
  • हमेशा पूर्व या दक्षिण की ओर सिर करके सोना चाहिए। उत्तर या पश्चिम की ओर सिर करके सोने से शरीर में रोग होते हैं तथा आयु कम होती है।
  • दिन में उत्तर की ओर तथा रात में दक्षिण की ओर मुँह करके मल-मूत्र का त्याग करना चाहिए । दिन में पूर्व की ओर तथा रात में पश्चिम की ओर मुँह करके मल-मूत्र का त्याग करने से आधासीसी रोग होता है ।
  • दिन के दूसरे और तीसरे पहर यदि किसी वृक्ष, मन्दिर आदि की छाया मकान पर पड़े तो वह रोग उत्पन्न करती है ।
  • एक दीवार से मिले हुए दो घर यमराज के समान गृहस्वामी का नाश करने वाले होते हैं।
  • किसी मार्ग या गली का अन्तिम मकान अत्यंत कष्टकारी होता है ।
  • घर की सीढ़ियाँ, खम्भे, खिड़कियाँ, दरवाजे आदि की ‘इन्द्र -काल -राजा’ के क्रम में करें । यदि अन्त में काल आए तो अशुभ समझना चाहिए ।
  • घर में दीपक,  बल्ब आदि का मुख पूर्व अथवा उत्तर की ओर रहना चाहिए ।
  • भोजन, मंजन और क्षौरकर्म हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुँह करके ही करना चाहिए ।
धन्यवाद ।

Post a Comment

और नया पुराने