विष्णु प्रवर्तनीय एकादशी
इस श्रेष्ठ व्रत को पद्मा एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। इसी दिन विष्णु भगवान क्षीर सागर में शेष शैया पर शयन करते हुए करवट बदलते हैं। इसीलिए इसे करवटनी एकादशी भी कहते है। यह माता लक्ष्मी जी का परम आह्लादकारी व्रत है। इसके करने से अश्व मेघ यज्ञ का फल मिलता है।
vishnu parivartini ekadasi |
व्रत को रखने का समय-
यह उत्तम व्रत भाद्रपद मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी को किया जाता है।व्रत की विधि-
व्रत करने वाले को चाहिए कि वह ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नानादि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करे। मनसा वाचा, कर्मणा तीनों प्रकार से पवित्र रहकर व्रत रखे। धूप, दीप, रोली, चन्दन, पुष्प आदि से श्री विष्णु व लक्ष्मी जी की आरती करें।भक्तों में प्रशाद वितरण करके स्वयं भी प्रशाद ग्रहण करें। इस दिन श्री लक्ष्मी-पूजन करना उत्तम होता हैं क्योंकि देवताओं ने अपने राज्य को फिर से पाने के लिए महालक्ष्मी का पूजन किया था। व्रत में श्री सत्यनारायण जी की आरती का हि विधान है।
व्रत सम्बन्धी कथा-
एक समय की बात है कि युधिष्ठिर के पूछने पर भगवान श्री कृष्ण ने एकादशी की कथा सुनाते हुए कहा,"हे युधिष्ठिर! इस दिन विष्णु जी करवट बदलते हैं। इसीलिए इस व्रत को परिवर्तनीय एकादशी के नाम से भी पुकारा जाता है। अब मैं तुम्हें आगे का वृत्तांत कहता हूँ ध्यान पूर्वक सुनो- त्रेता युग में बलि नाम का एक दैत्यों था। वह सत्यवादी, ब्राह्मणों की सेवा करने वाला तथा दानी भक्त था। वह अपने तपोबल से स्वर्ग में इन्द्रासन पर अधिकार जमा बैठा। जब इन्द्रादि देवों ने मुझसे इस विषय में प्रार्थना की, तो मैंने एक तेजस्वी ब्राह्मण बालक के रूप में राजा बलि को जिता।
मैंने वामन अवतार धारण करके राजा बलि से याचना की कि हे राजन! तुम मुझे तीन पैर भूमि दे दो, इसे तुम्हें तीन लोग के दान की फल प्राप्ति होगी। बलि के सहमत होने पर मैंने अपना आकार बढ़ाया तथा भूलोक में पैर, भुवर लोक में जंघा, स्वर्ग लोक में कमर, महलोक में पेट, जन लोक में हृदय, तप लोक में कठं तथा सत्यलोक में मुख को रखकर अपना सिर ऊंचा कर लिया।
इस पर इन्द्रादि अन्य देवता सूर्य, चंद्र, नक्षत्र सभी मेरी स्तुति करने लगे। मैंने दैत्यराज बलि को पकड़कर पूछा, "कहो, कहो अब तीसरा पैर में कहाँ रखूॅ?" इतना सुनकर बलि ने जैसे ही सिर झुकाया मैंने तीसरा पैर उसके सिर पर रख दिया। वह भक्त पाताल को चला गया। उसकी विनम्रता को देखकर मैंने उसे कहा, "हे दैत्यराज! मैं सदैव तुम्हारे पास रहूंगा। भादों शुक्ल परिवर्तित एकादशी को मेरी एक प्रतिमा बलि के पास रहेगी तथा दूसरी शेष शैया पर शयन करेगी। इस दिन रात्रि में जागरण भी करना चाहिए।"
इस व्रत को करने वाला इस लोक में सभी प्रकार के सुखों से युक्त होकर अंत में विष्णु लोक को चला जाता है। इस व्रत में कथा के अन्त में श्री सत्यनारायण जी की आरती का विधान है।
धन्यवाद।
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