शुक्रवार व्रत कथा - Sukravaar vrat katha 

शुक्रवार व्रत का महत्व - shukravaar vrat ka mahatv

इस व्रत कथा की अभीष्ट देवी सन्तोषी माता हैं। उनकी कथा की श्रद्धापूर्वक श्रवण एवं मनन करने से घर गृहस्थी में सभी प्रकार का सुख व संतोष उत्पन्न होता है। इसकी उपासना करने से प्राणी प्रत्येक प्रकार की पीड़ा व कष्टों से छुटकारा पा जाते हैं।
यह देवी अनेक रूपों वाली बनकर संसार में व्याप्त है। विश्व के सुखों को खोजने वाले मनुष्यों ने अनेक जगह माता संतोषी का प्रभाव अपनी आंखों से देखा है। असंख्य भक्तगण इसे घर-घर व्यापी महान शक्ति को अपने दिल में बसाकर एवं पूर्ण श्रद्धा व आस्था पूर्वक धारण करके अपना जीवन हर तरह से सुखमय कर चुके हैं।
शक्ति स्वरूप माता संतोषी सर्वत्र उपस्थित होते हुए भी निराकार व अगोचर है। अतः विश्व के समस्त पदार्थों पर राज्य करने वाली इस अलौकिक सच का स्वरूप आप अपने नेत्रों से नहीं देख पाएंगे। इस वक्त महान अलौकिक देवी शक्ति का नाम सच्ची श्रद्धा एवं अन्तः करण का निष्कपट स्वाभाविक प्रेम है।
शुक्रवार  व्रत कथा
Sukravaar vrat katha

शुक्रवार व्रत की पूजन सामग्री - shukravaar vrat kee poojan saamagree

इस व्रत को करने से पूर्व निम्नांकित पूजन की सामग्री एकत्रित कर लेनी चाहिए।
सवा रुपए के अथवा श्रद्धा व आवश्यकतानुसार भुने हुए चने एवं गुड पुष्प धूपबत्ती अगरबत्ती कपूर घी का दीपक सन्तोषी माता की प्रतिमा जलयुक्त कलश।

शुक्रवार व्रत का पूजन विधान - shukravaar vrat ka poojan vidhaan

मां का प्रशाद जितना भी बन सके स्वयं ही लेना चाहिए। बिना किसी परेशानी के श्रद्धा व प्रेम से जितना भी बन सके स्वयं ही लेना। सवा पैसे, सवा पांच आना व इससे अधिक शक्ति व भक्ति के अनुसार ही लेना चाहिए।
प्रत्येक शुक्रवार को निराहार रहकर व्रत की कथा कहनी अथवा सुननी चाहिए। यह क्रम टूटना नहीं चाहिए। लगातार नियम का पालन करते रहना चाहिए। यदि कथा को सुनने वाला कोई न मिले, तो घी का दीपक जला, उसके आगे जल के पात्र को रखकर कथा कहनी चाहिए। लेकिन कार्य सिद्ध होने तक यह नियम नहीं टूटना चाहिए। व्रत के दिन घर में या घर के बाहर खटाई का सेवन न करें

शुक्रवार व्रत का उद्यापन - shukravaar vrat ka udyaapan

विधि-विधान पूर्वक भक्तों को माता का व्रत करना चाहिए। कार्य सिद्ध हो जाने पर ही व्रत का उद्यापन करना चाहिए। तीन मास में सन्तोषी माता अपने भक्तों के मन की मुराद पूर्ण करती है। यदि किसी के खोटे ग्रह हों, तो भी माता तीन वर्ष में अवश्य कार्य को सिद्ध करती है। मनोरथ सिद्ध होने पर ही व्रत का उद्यापन करना चाहिए, बीच में कदापि नहीं।
इस व्रत के उद्यापन में ढाई सेर आटे का खाजा तथा चने का साग बनवाकर आठ लड़कों को भोजन कराना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो सके, देवर, जेठ, भाई-बन्धु, कुटुम्ब कबीले के लड़के लेना चाहिए। उनके ने मिलने पर रिश्तेदारों अथवा  पड़ोसियों के लड़के भी बुलवा सकते हैं। अपनी सामर्थ्यानुसार ही दक्षिणा देकर माता का नियम पूरा करें। उद्यापन के दिन भी घर पर कोई सदस्य अथवा मेहमान खटाई न खाएं।

शुक्रवार व्रत कथा - shukravaar vrat katha

सिद्ध सदन, सुन्दर बदन, गज नायक महाराज।
दास आपका हूँ सदा, कीजै जन के काज।।
जय शिवशंकर गंगाधर, जय जय उमा भवानी।
सियाराम कीजै कृपा, हरि राधा कल्याणी।।
प्रिय भक्त बन्धुओं व बहिनों !
आज आपके सम्मुख एक ऐसी पवित्र एवं सुन्दर वार्ता चरित्र रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे सम्पूर्ण श्रद्धा व आस्थापूर्वक सुनने से गृहस्थ एवं पारिवारिक जन प्रत्येक प्रकार की पीड़ा एवं कष्टों से मुक्ति प्राप्त करते हैं।
धर्मप्रेमी श्रद्धालुओं ! यह तो सर्वविदित है कि भक्तों पर जब जब भीर पड़ी है, परमात्मा ने अनेक अवतार धारण किए हैं। जैसे रामावतार, कृष्णावतार, दुर्गावतार, दुर्गा उत्पत्ति आदि प्रमुख हैं। ठीक उसी प्रकार मृत्युलोक में माता सन्तोषी को प्रगट करना गणेश भगवान जी की महान अनुकम्पा है।

मूल कथा -

अत्यन्त प्राचीन काल की बात है एक वृद्धा थी। इसके सात पुत्र थे। इनमें से 6 पुत्र अपने काम धंधे में लगे हुए थे, लेकिन उस का सातवां पुत्र निकम्मा था। वह दिन भर घर पर ही पड़ा रहता था।
वृद्धा अपने छह पुत्रों के लिए स्वादिष्ट भोजन पकाती थी और उन्हें बड़े प्यार से अपने सामने बिठाकर भोजन कराती थी। इन छह के खाने से जो कुछ बचता था, वह सातवें बेटे को खाने को दे देती। यह बेचारा इतने सरल स्वभाव का था कि सबकी जूठन खाने पर भी कभी किसी प्रकार का गिला शिकवा न करता था।
एक दिन उसकी धर्मपत्नी ने उस पर व्यंग्य कसते हुए कहा, "आपकी माता जी आप पर बड़ी मेहरबान रहती हैं।"
"हां, इसमें क्या शक है?" सातवें पुत्र ने अपनी पत्नी से कहा। "शक शक की बात पूछते हो तभी तो पूरे घर की जूठन व गिरा पड़ा, बचा खुचा भोजन थाली में सजाकर आपकी माता आपको दे जाती है।" पत्नी ने अपने पति से कहा।
"मैं अपनी मां के विषय में तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। आखिर तुम कहना क्या चाहती हो?" पति ने चिन्तित होकर कहा।
"भला सोच भी कैसे सकते हो? जरूरत से अधिक भोले जो ठहरे। मैं आज आपकी आँखों पर पड़ा हुआ ममता का पर्दा हटा देना चाहती हूँ। सच्चाई हमेशा कड़वी ही होती है व कड़वी चीज आसानी से गले से नहीं उतरती।" पत्नी ने पति से कहा।
"मैं कही सुनी बातों पर इतनी सरलतापूर्वक विश्वास नहीं कर सकता। मुझे विश्वास है कि किसी ने तुम्हें मेरी मां के प्रति भड़काने की नियत से ही ऐसा पाठ पढ़ा दिया होगा।" पति ने अपनी पत्नी से कहा।
"पत्नी ने हंसकर कहा, "जी हाथ कंगन को आरसी क्या? पढ़े लिखे को फारसी क्या? वक्त आने पर सब जान जाओगे।"
"कुछ भी हो मैं तब तक विश्वास नहीं करूंगा, जब तक मैं अपनी ही आंखों से न देख लूं।" पति ने पत्नी से कहा।
"देख लो तब तो मानोगे?" बहू ने हंसकर कहा।
"हां हां, फिर तो मानना ही पड़ेगा।" पति ने कहा।
 धीरे-धीरे समय गुजरता रहा। कुछ दिन बाद घर में बड़ा त्यौहार मनाया गया। अनेक प्रकार के भोजन व चूरमा के लड्डू बनाए गए। पूरा घर स्वादिष्ट भोजन की भीनी भीनी खुशबू में महक रहा था। तभी सातवें पुत्र ने सोचा कि आज मां के व्यवहार को ही परख लिया जाए। ऐसा सोचकर वह सिरदर्द का बहाना बनाकर रसोई के भीतर ही जाकर एक पारदर्शी चादर ओढ़ कर लेट गया। वह नींद का बहाना करके शांत भाव में रसोईघर की प्रत्येक गतिविधि पर ध्यान देने लगा।
भोजन के समय छहों भाई भोजन करने आए। उसने देखा माँ ने उनके लिए सुंदर सुंदर आसन बिछाए हैं। अनेक प्रकार की स्वादिष्ट रसोई परोसी है।
"ले थोड़ा हलवा और खा ले देसी घी में तैयार किया है।" माँ ने हलवा परोसते हुए कहा।
"माँ मुझे नहीं पचेगा। थोड़ा कम कर देना।" लड़के ने नखरे के साथ कहा।
 "तुझे मेरी कसम बेटा। मैंने बड़े जतन से बनाया है। तुझे खाना ही होगा।" माँ ने प्यार से बेटे की आंखों में झाँकते हुए कहा।
जब छहो भाई भोजन करके उठ गए तो माँ ने उनकी थाली से लड्डुओं का चूरा इकट्ठा करके एक बड़ा लड्डू बनाया। एक झूठी कटोरी में थोड़ी सी सब्जी व दूसरी में खीर व हलवा परोसकर माँ ने सातवें पुत्र को जगाने के लिए आवाज लगाई। "उठ जा बेटा ! काफी दिन चढ़ चुका है। तेरे सारे भाई भोजन कर चुके हैं। अब तू ही बाकी है, उठ न कब खाना खाएगा?"
सातवां पुत्र यह सारा नजारा देख चुका था। वह मन ही मन कुढ रहा था। चादर को एक ओर फेंककर बोला, माँ मुझे भोजन नहीं करना। मैं परदेश जा रहा हूं।
"अरे तो इंतजार किस बात की है। चला क्यों नहीं जाता। मैं तो कहती हूं कि कल जाना हो तो आज ही चला जा। मुझे नखरे दिखाने की कोई जरूरत नहीं है।" माँ ने फटकारते हुए कहा।
"हां मां आज और अभी जा रहा हूँ।" यह कहकर वह घर से निकल गया। थोड़ी दूर चलने पर उसे अपनी पत्नी की याद सताने लगी। उसने सोचा कि न जाने परदेश से कब लौटना होगा। अतः जाते वक्त अपनी पत्नी से मिल लूं।
वह बेचारी गौशाला में कंडे( उपले) थाप रही थी। वह वही जाकर बोला।
"हम जावें परदेश को, आवेंगे कछु काल।
 तुम रहियो संतोष से, धर्म आपनो पाल।।"
 पति के मुख से ऐसे वचनों को सुनकर पत्नी ने कहा -
 "जाओ पिया आनंद ते, हमरे सोच हटाए।
 राम भरोसे हम रहें, ईश्वर तुम्हें सहाय।।
देऊ निशानी अपनी, देखि धरु में धीर।
 सुधि हमरी न बिसारियो, रखियों मन गम्भीर।"
पत्नी से ऐसा उत्तर पाकर वह कहने लगा, "तुम्हे निशानी के रूप में देने के लिए मेरे पास तो यह एक अंगूठी है, इसे रख लो, यह तुम्हें मेरी याद दिलाती रहेगी। अपनी कोई निशानी मुझे दे दो, ताकि मुझे परदेश में तुम्हारी याद आने पर मैं अपना मन समझा सकूं।"
 यह कहकर पत्नी ने कहा, "आपको देने के लिए इस समय मेरे पास भला क्या है। यही गोबर भरे हाथ हैं।"
यह कहकर उसने अपने पति की पीठ पर प्यार से गोबर से भरे हाथ की थाप मार दी। इसके बाद वह आगे बढ़ गया। चलते-चलते कुछ दिन बाद वह दूर देश जा पहुंचा। बाजार में पहुंचकर एक सेठ की दुकान पर जाकर बोला, "सेठ जी! मुझे नौकरी पर रख लो।"
सेठ को आदमी की सख्त जरूरत थी। बोला, "ठीक है अभी से काम पर लग जाओ।"
"सेठ जी ! वेतन क्या दोगे?" लड़के ने विनम्रतापूर्वक पूछा। "काम देखकर वेतन भी तय कर दूंगा।" सेठ ने लड़के को दिलासा देते हुए कहा।
 सेठ की नौकरी मिलते ही वह बड़ी मेहनत व लगन के साथ अपना काम करने लगा। वह कुछ ही दिनों में दुकान का लेनदेन, ग्राहकों को माल बेचना, सारे कार्य करने लगा। सेठ जी के आठ दस नौकर थे, वे सब के सब चक्कर खाने लगे कि यह तो इतनी जल्दी बहुत होशियार बन गया है।
लड़के की इमानदारी, मेहनत व सच्ची लगन सेठ जी की पारखी नजरों से छिप न सकी। उन्होंने उसकी अटूट लगन को देखते हुए तीन माह में ही उसने आधे मुनाफे का साझेदार बना लिया। वह बारह वर्ष में ही नामी सेठ बन गया। मालिक उस पर कारोबार सौंपकर बाहर चला गया। बारह वर्ष बाद वह भी नगर का नामी सेठ बनेगा।
अब बेचारी बहू पर क्या बीतती है तो सुनिए - उसके सास ससुर उसे दारुण दुख देने लगे। सारी गृहस्ती का काम कराते, उसे लड़की लेने जंगल में भेजते। इस बीच घर में रोटी के आटे से जो भूसी निकलती, उसकी रोटी बनाकर रख दी जाती और फूटे नारियल की नरेली (खोपड़ी) में पानी। इस प्रकार वह बेचारी दिन गुजारने लगी।
एक दिन वह लकड़ी लेने जा रही थी कि उसे मार्ग में बहुत सी नारियां संतोषी माता का व्रत करती दिखाई दी। वहां पर वह खड़ी होकर देखने लगी।
कथा सुनकर वह कहने लगी, "बहनों तुम यह किस देवता का व्रत करती हो, इसके करने से क्या फल मिलता है। इस व्रत को करने की विधि क्या है? यदि आप अपने इस व्रत का विधान मुझे समझाकर कहोगी तो मैं तुम्हारा बड़ा उपकार मानूंगी।"
उसके मुंह से ऐसे वचनों को सुनकर एक नारी ने कहा, "सुनो बहन ! यह संतोषी मां का व्रत व पूजन किया जा रहा है। इसके करने से निर्धनता व दरिद्रता का विनाश होता है। घर में लक्ष्मी का प्रकाश होता है। मन की चिंताएं दूर होती हैं। घर में सुख होने से मन को प्रसन्नता व शांति मिलती है। बाँझ स्त्री को पुत्र मिलता है। प्रीतम बाहर गया हो तो घर लौट आए। कुंवारी कन्या को मनपसंद वर मिले। घर में सुख शांति हो। राजद्वार में बहुत दिनों से मुकदमा चलता हो तो मां की कृपा से शीघ्र निपट जाए। घर में धन जमा हो, पैसा जायदाद का लाभ हो, रोग दूर हो। इसके अतिरिक्त मन में जो भी कामना होवे, वे माता संतोषी की कृपा से शीघ्र पूर्ण हो जाती है।"
"यह व्रत कैसे किया जाए, यह भी बताओ तो आपकी अति कृपा होगी।" वह पूछने लगी।
एक नारी नारी ने उसे व्रत का विधान समझाते हुए कहा, "देखो बहन ! सवा रुपए का गुड़ चना लेना। इच्छा हो तो सवा पांच आने का अथवा सवा पांच रूपये का गुड़ चना सुविधा अनुसार ही लेना। कम ज्यादा का कोई विचार मत करना, क्योंकि संतोषी माता तो केवल भावना की भूखी हैं। किसी ने कहा भी है -
दोहा - "जाकी जैसी भावना, ताकू वैसा सिद्ध।
 हँसा मोती जुगत है, मुर्दा चौखत गिद्ध।"
सच्ची श्रद्धा भक्ति से माता संतोषी शीघ्र ही प्रसन्न हो जाती है। प्रत्येक शुक्रवार को निराहार रहकर कथा कहना सुनना। लगातार नियम पालन करना, इसके बीच क्रम नहीं टूटना चाहिए। यदि कथा सुनने वाला कोई भी न मिले तो देसी घी का दीपक जला उसके आगे जल के पात्र पर गुड़ चने से भरा कटोरा रखकर कथा कहना लेकिन नियम न टूटे। जब तक कार्य  सिद्ध न हो, नियम पालन करना और कार्य सिद्ध हो जाने पर व्रत का उद्यापन करना।
तीन मास में माता फल पूरा करती है। यदि किसी के ग्रह खोटे हो तो भी माता 3 वर्ष अवश्य ही मनोरथ सिद्ध होती है। फल सिद्ध होने पर ही उद्यापन करना चाहिए, बीच में नहीं।
 उद्यापन में ढाई सेर आटे का खाजा एवं चने का साग करना, आठ लड़कों को भोजन कराना जहां तक संभव हो सके देवर जेठ, भाई बंधु, कुटुम्ब कबीले के लड़के लेना। न मिले तो रिश्तेदार व पड़ोसियों को बुलाना। उन्हें शक्ति अनुसार दक्षिणा देकर माता का नियम पूरा करना उद्यापन के दिन घर का कोई भी सदस्य घर में या बाहर भी खटाई न खाएं।
स्त्रियों के मुख से ऐसे वचनों को सुनकर वृद्धा की पुत्रवधू वहां से चल दी। रास्ते में लकड़ी का बोझ बेच दिया और उन पैसों से गुड़ चना ले माता के व्रत की तैयारी करने लगी।
 यहां से थोड़ा आगे चली। सामने एक मन्दिर देखकर पूछने लगी, "यह सामने किसका मंदिर है?"
 सब कहने लगे, "यह संतोषी मां का मन्दिर है।"
यह सुनकर वह बेचारी मन्दिर में जा माता के चरणों में लेटने लगी। दीन हो, विनती करने लगी, मां! में बड़ी दुखियारी हूं। तुम्हारे व्रत के नियम भी नहीं जानती। हे माता जगत जननी! मेरा कष्ट दूर करो। मेरे संकट को हर लो माँ मैं तेरी शरण में हूँ।"
 माता ने उसकी करुण पुकार सुन ली। एक शुक्रवार बीता अगले शुक्रवार को ही उसके पति का पत्र आया और तीसरे शुक्रवार को उसके पति का भेजा हुआ पैसा आ पहुंचा।
यह देखकर उसकी जेठानी मुहँ सिकोडने लगी, "इतने दिनों में पैसा आया, इसमें क्या बडाई है?" लड़के ताने मारने लगे - "काका के तो अब पत्र आने लगे। रुपया आने लगा। अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी। अब तो काकी बुलाने से भी न बोलेगी।"
इस पर वह बेचारी सरलता से कहती, भैया! पत्र आवे, रुपया आवे तो हम सबके लिए ही अच्छा है।"
ऐसा व्यवहार आँखों में आंसू भरकर संतोषी माता के भवन में आकर मातेश्वरी के चरणों में गिरकर रोने लगी और कहने लगी, "हे मां मैंने आपसे पैसा कब मांगा था, मुझे भला पैसे से क्या काम है। मुझे तो अपने सुहाग से ही काम है। मैं तो अपने स्वामी के दर्शन और सेवा ही मांगती हूं।"
 इस पर संतोषी माता ने प्रसन्न होकर कहा, "जा बेटी! तेरा स्वामी भी शीघ्र आ जाएगा।"
माता संतोषी के मुख से ऐसे वचनों को सुनकर उस बेचारी की खुशी का कोई ठिकाना न रहा। वह खुशी मन से घर को लौट गई और अपना काम करने लगी।
अब संतोषी मां ने अपने कथन पर विचार किया। इस भोली पुत्री से मैंने कह तो दिया कि तेरा पति आएगा। लेकिन आएगा कहां से? वह तो इस बेचारी को स्वपन में भी याद नहीं करता। उसे याद दिलाने को तो मुझे ही जाना पड़ेगा।
इस प्रकार विचार करने के बाद संतोषी माता उस वृद्धा के पुत्र के पास जाकर प्रकट होकर बोली, "साहूकार के पुत्र सोता है या जागता है?"
 लड़के ने कहा, "मातेश्वरी सोता भी नहीं हूं और जागता भी नहीं हूं। कहो मेरे लिए क्या आज्ञा है?"
 संतोषी माता ने लड़के से पूछा, "बेटा तेरा कुछ घर बार है या नहीं?"
 वह कहने लगा, "मेरे सब कुछ है माता। मां बाप, भाई व बहू कोई कमी नहीं है।"
माता ने कहा, "पुत्र ! तेरी घरवाली घोर कष्ट उठा रही है। तेरे माता पिता उसे बहुत सता रहे हैं। वह तेरे दर्शन के लिए तरस रही है। तू जाकर उसकी भी सुधि ले।"
 लड़के ने कहा, "मातेश्वरी ! यह तो मुझे भी मालूम है लेकिन जाऊं कैसे ? परदेश की बात है लेन-देन का कोई हिसाब नहीं। जाने का कोई रास्ता ही नजर नहीं आता। कैसे चला जाऊं माता ?"
इस पर मातेश्वरी ने कहा, "बेटे ! मेरी बात मान, सवेरे नहा धोकर संतोषी माता का नाम लेकर घी का दीपक जला, दण्डवत् कर दुकान पर बैठ। देखते-देखते तेरा लेनदेन चूक जाएगा, जमा माल बिक जाएगा।"
अब तो वह सवेरे बहुत जल्दी उठा। अपने मित्रों से सपने की सारी बात कही। वह सब उसकी बात अनसुनीकर दिल्लगी उड़ाने लगे और कहने लगे, "भला कहीं सपने भी सच्च होते हैं।"
 एक बूढा बोला, "देख भाई ! मेरी बात मान इस प्रकार सच झूठ करने के बदले तो तुम्हें देवता ने जैसा आदेश दिया है। वैसा ही करो इसमें तुम्हारा क्या जाता है?
अब वह बूढ़े की बात मान सवेरे ही स्नान करके घी का दीपक जला संतोषी माता को दण्डवत प्रणाम करके दुकान पर जा बैठा। थोड़ी ही देर में वह क्या देखता है देने वाले रुपया लाने लगे। कोठे में भरे सामान के ग्राहक नगद दाम में सौदा करने लगे। शाम तक धन का ढेर लग गया। मन में संतोषी माता का चमत्कार देख प्रसन्न हो, घर को ले जाने के वास्ते गहना कपड़ा आदि सामान खरीदने लगा। यहां के काम से निपट तुरन्त घर को रवाना हुआ।
वहाँ बेचारी बहू जंगल से लकड़ी लेने जाती। लौटते वक्त माताजी के मन्दिर में विश्राम लेती है। यह तो उसका रोज का रुकने का स्थान था। दूर पर धूल उड़ती देख वह माताजी से पूछती है - "हे माता! यह धूल कैसी उड़ रही है?"
मां ने उसकी जिज्ञासा को शान्त करते हुए कहा, "पुत्री! आज तेरा स्वामी आ रहा है। अब तू ऐसा कर लकड़ियों के तीन बोझ बना ले। एक नदी के किनारे रख, दूसरा मेरे मन्दिर पर छोड़ और तीसरा अपने सिर पर रख। तेरे स्वामी को लकड़ी का बोझा देखकर सूखी लकड़ियों का मोह पैदा होगा। वह यहां रुकेगा। नाश्ता पानी बना कर खाकर माँ से मिलने को जाएगा। तब तू लकड़ियों का बोझ उठाकर लाना और बीच चौक में लकड़ियों का गट्ठर पटककर तीन आवाज जोर से लगाना- "लो सासूजी लकड़ियों का गट्ठर लो,
भूसी रोटी दो और नारियल की खोपड़ी में पानी दो। आज कौन मेहमान आया है?
"बहुत अच्छा माता जी।" यह कहकर वह बेचारी प्रसन्न मन से लकड़ी के तीन बोझ बना लाई। उसने एक नदी किनारे, दूसरा संतोषी माता के मन्दिर में रख दिया।
 इतने में ही वहाँ एक मुसाफिर आ पहुंचा। यही उसका पति था। सूखी लकड़ियाँ देख उसके मन में इच्छा हुई कि अब यहीं विश्राम करें और भोजन बना खाकर ही आगे की मंजिल तय करें।
इस प्रकार वह माता के मन्दिर पर ही रुककर, भोजन बना खाकर विश्राम कर गांव को गया। वहाँ सबसे प्रेम से मिला। ठीक तभी उसकी पत्नी सिर पर लकड़ी का गट्ठर लेकर आती है। लकड़ियों के भारी गट्ठर को आंगन में पटककर जोर से तीन आवाज लगाती है - "लो सासूजी ! लकड़ियों का गट्ठर लो, भूसी की रोटी दो, नारियल की खोपड़ी में पानी दो। आज मेहमान कौन आया है?"
अपनी पुत्रवधू के मुख से ऐसे वचनों को सुनकर सास वहां आकर बहू को दिए गए दुखों को भुलाने हेतु कहती है, "ऐसा क्यों कहती है बहू ? तेरा स्वामी ही आया है। आ बैठ मीठा भात खा, भोजन कर, कपड़े गहने पहन।"
इतने में ही वृद्धा का सातवां पुत्र अपनी पत्नी की आवाज सुनकर बाहर आ जाता है और अंगूठी देखकर व्याकुल हो जाता है। अपनी माँ से पूछता है,, माँ ! यह फटेहाल औरत कौन है ?"
 मां ने बेटे से कहा, अरे बेटा ! लगता है तू तो परदेश जाकर अपनी बहू को भूल बैठा। यह तेरी बहू ही तो है। आज से बारह साल पहले जब तू इसे छोड़कर परदेश चला गया था, तभी से यह सारे गांव में तेरे वियोग में पशुओं की भांति भटकती फिरती है। घर का कोई काम काज भी नहीं करती। उल्टा चार वक्त आकर खा जाती है। अब तुझे दिखाने के लिए ही बड़ी भोली बन रही है। मुझे तेरी नजरों से गिराने के लिए भूसी की रोटी और नारियल की खोपड़ी में पानी मांग रही है।
मां के द्वारा पेश की गई सफाई को सुनकर वह लज्जित होकर बोला,  "माँ ठीक है, मैंने इसे भी देखा है और तुम्हे भी। अब मुझे दूसरे घर की चाबी दो। मैं जाकर वही रहूंगा।"
 माँ ने बुरा सा मुंह बनाते हुए चाबी का गुच्छा फर्श पर पटकते हुए कहा, "यह ले बेटा दूसरे घर की चाबियाँ, आज से जैसी तेरी मर्जी हो करना।"
लड़के ने मां की बात को अनसुनी करके लपक कर चाबी का गुच्छा उठाया और दूसरे मकान में जा पहुंचा। तीसरी मंजिल का कमरा खोल कर उसकी बहू ने घर का सारा सामान सजाया। एक ही दिन में वहाँ संतोषी माता की कृपा से राजमहल जैसे ठाट बाट बन गए।
अब क्या था? दोनों पति-पत्नी सुख पूर्वक समय बिताने लगे। कुछ दिन बाद अगला शुक्रवार आ गया। बहू ने अपने पति से कहा, "स्वामी मुझे संतोषी माता का उद्यापन करना है।"
 उसके पति ने कहा, "तो इसमें परेशान होने की क्या बात है। यह तो बहुत ही अच्छी बात है। प्रसन्नतापूर्वक मां का उद्यापन करो।"
 पति की सहमति पाकर बहू बहुत प्रसन्न हुई। वह फौरन ही  मां के उद्यापन की तैयारी में जी-जान से जुट गई। जेठ के लड़को को भोजन के लिए कहने गई। उसकी जेठानी ने उस समय तो उसकी बात स्वीकार कर ली, लेकिन उसके जाने के बाद अपने लड़के को सिखाती है, देखो बच्चों ! भोजन के वक्त सभी अपनी चाची से खटाई मांगना ताकि इसका उद्यापन पूरा न हो।"
"और मां यदि उन्होंने खटाई खाने को न दी तो क्या करें?" बड़े लड़के ने पूछा।
 "तो बेटा उनसे खाना खाने के बाद पैसे मांगना। पैसे लेकर बाहर पड़ोस की दुकान से इमली खरीद के खाना।" जेठानी ने प्यार से अपने लड़कों को समझाते हुए कहा।
मां की बात सुनकर लड़के उद्यापन में जिमने आए। उन्होंने पेट भरकर संतोषी मां का प्रसाद ग्रहण किया। लेकिन अपनी माता की सीख याद आते ही कहने लगे, "काकी ! हमें थोड़ी खटाई या आचार खाने को दो, अकेले खीर खाना हमें अच्छा नहीं लगता, देखकर बड़ी अरुचि होती है।"
बच्चों को खटाई माँगते देख बहू ने कहा, "बच्चों ! यह तो संतोषी माता का प्रशाद है। आज उनका उद्यापन है। इसमें तो किसी को भूल से भी खटाई नहीं दी जा सकती। खटाई का सेवन करने से हमारी संतोषी माता कुपित हो जाएंगी।"
यह सुनकर लड़के विवशतापूर्वक उठ खड़े हुए। लेकिन अगले ही पल बोले - "अच्छा काकी! हमें खटाई की बजाय चीज खाने के लिए पैसे तो दे सकती हो।"
 भोली बहू उनकी चाल को न समझ सकी। वह भी अपनी अकल खो बैठी और रुमाल से खोलकर सबको दक्षिणा के रूप में पैसे देने लगी।
लड़के पैसे लेकर उसी समय पड़ोस की दुकान पर पहुंचे और इमली खरीदकर खाने लगे। यह देखकर संतोषी माता के क्रोध का ठिकाना न रहा। माता की कोप दृष्टि घूमी। फौरन राजा के दूत आए और उसके पति को पकड़कर ले गए।
जेठ जेठानी मनमाने खोटे वचन सुनाने लगे, "देखो लूट लूटकर धन इकट्ठा कर लाया था, इसीलिए राजा के दूत इसे पकड़कर ले गए। अब सब आटे दाल का भाव मालूम पड़ जाएगा। जब जेल की रोटी खाएगा।"
 बहू से ऐसे कड़ुवे वचन सहन नहीं हुए। वह रोती हुई संतोषी माता के मन्दिर में पहुंची और अश्रुपूरित नेत्रों से कहने लगी,  "हे माता ! तुमने यह क्या किया ? मुझे हँसाकर अब क्यों रुलाने लगी?"
माँ ने उसकी करुण पुकार को सुना और प्रकट होकर उसके आँसू पोछते हुए बोली, "रो मत बेटी ! तूने इतनी  जल्दी मेरी सारी बातें भुला दी। पति की सेवा व बेशुमार धन पाकर तुझे अभिमान हो गया, जिसके कारण भ्रमित होकर तूने मेरा व्रत भंग किया है।
बहू ने विनती भरे स्वर में कहा, "मां ! भला मैं अभागिन किस चीज का अभिमान करूंगी ? मैं भी आपकी हूँ, मेरा पति भी आपका ही बच्चा है, धन वैभव भी सब आपका ही प्रशाद है। हे माँ!  मुझे तो इन लड़कों ने ही भूल में डाल दिया था। मैंने भूल से इन्हें पैसे दे दिए। मुझे क्षमा करो। इसे मेरी पहली व आखरी भूल मानकर क्षमा कर दो, मातेश्वरी !"
संतोषी माता ने कहा, "भला ऐसी भी भूल होती है कहीं ?" बहू ने कहा, "माँ मैं आपके पैरों पर गिरकर क्षमा याचना करती हूं। मुझे इस बार क्षमा कर दो, माँ मैं तुम्हारा फिर से उद्यापन करूंगी।"
 माँ ने उसे सचेत करते हुए कहा,  "जा अब की बार कोई भूल मत कर बैठना, वरना घोर अनर्थ हो जाएगा।"
संतोषी माता के मुख से ऐसे वचनों को सुनकर बहू ने कहा, "अब आपकी बेटी से कोई भूल न होगी। माँ ! कृपा करके मुझे यह तो बताओ कि मुझे अपने पति की सेवा का सौभाग्य कब प्राप्त होगा?"
 "जा बेटी, तेरा पति तुझे मार्ग में ही आता हुआ मिल जाएगा।" संतोषी माता ने आशीर्वाद देते हुए कहा।
माता जी की बात सुनकर बहू अपने घर चल दी। मार्ग में उसे  उसका पति आता दिखाई पड़ा। पास पहुंचकर पति के चरणों में गिरकर उसने पूछा, "आप कहां चले गए थे?  आपकी चिन्ता में तो मेरी जान ही निकल गई थी।"
उसके पति ने कहा, "तुम तो बहुत जल्दी घबरा जाती हो। मैंने जो धन कमाया था। उसका टैक्स राजा ने मँगाया था। उसे भरकर आ रहा हूं। व्यापार में तो यह सब कुछ चलता ही रहता है।"
"चलो मां की कृपा से हमारा कल्याण हुआ। अब घर चलते हैं।" वह प्रसन्नता पूर्वक अपने पति से बोली।
कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार आया। वह बोली, "मुझे माता का उद्यापन करना है।"
 उसके पति ने कहा, "तो नेक काम में देरी कैसी ? करो, प्रसन्नता पूर्वक एवं विधिविधान पूर्वक माँ का उद्यापन करो ताकि माँ की अनुकम्पा हम पर बनी रहे।"
अपने पति की आज्ञा पाकर वह फिर से जेठ के लड़कों को बुलाने के लिए गई। जेठानी ने एक दो बातें सुनाई और अपने लड़कों को सिखाने लगी, "तुम सब लोग पहले ही खटाई मांगना ताकि इसका उद्यापन पूरा न हो पाए।"
 लड़के भोजन की बात पर कहने लगे, "काकी हमें खीर खाना नहीं भाता साथ में कुछ खटाई खाने को दो तो आपके साथ चलें।"
 बहू ने कहा, "खटाई खाने को तो किसी को नहीं मिलेगी और न ही किसी को पैसा मिलेगा। केवल संतोषी माता का प्रशाद मिलेगा, तुम्हे आना हो तो आओ वरना मैं ब्राह्मण के लड़कों को बुला लाऊंगी।"
जब उसके जेठ के लड़के साथ नहीं आए तो वह ब्राह्मण के लड़कों को बुलाकर भोजन कराने लगी। यथाशक्ति दक्षिणा के स्थान पर उन्हें खाने के लिए एक एक मीठा फल दिया। इससे उन पर सन्तोषी माता प्रसन्न हुई।
सन्तोषी माता की कृपा से बहू को नवे मास में चन्द्रमा के समान सुन्दर पुत्र प्राप्त हुआ। अब वह पुत्र को साथ लेकर प्रतिदिन माता के मन्दिर जाने लगी।
एक दिन सन्तोषी माता के मन में विचार किया कि यह मेरे मन्दिर में रोज आकर दर्शन करती है। अपने दुखड़े दूर कराने के लिए विनती करती है। आज मैं इसके घर जा चल कर देखूं तो सही कि मेरे प्रति इसके मन में क्या श्रद्धा है, कहीं यह मेरी भक्ति का ढोंग तो नहीं रचती?
यह विचारकर माँ ने अपना भयानक रूप धारण किया। गुड व चने से सना मुख ऊपर को सूंड के समान होठ, उस पर मक्खियां भिनभिना रही थी।
जैसे ही संतोषी माता ने घर में कदम रखा। उसकी सास चिल्लाई, "देखो रे ! कोई चुड़ैल डाकनी चली आ रही है। लड़कों इसे यहां से फौरन भगाओ नहीं तो किसी को खा जाएगी।"
सन्तोषी माता के भयानक रूप को देखकर लड़के भय के मारे इधर-उधर भागने लगे। घबराकर घर की खिड़कियां बंद करने लगे। बहू एक रोशनदान में से सन्तोषी माता की इस लीला को देख रही थी। वह प्रसन्नता से पागल हो चिल्लाने लगी, "बच्चों! खिड़कियों व दरवाजों को माता के स्वागत में खोल दो। आज मेरी माता जी मेरे घर आई हैं।"
यह कहकर उसने अपने दूध मुंहे बच्चे को फर्श पर लिटाया और सन्तोषी माता के स्वागत में दौड़ पड़ी। यह देखते ही उसकी सास का क्रोध उबल पड़ा। वह क्रोध से फटती हुई बोली, "अरे कलमुही ! क्या देखकर उतावली हुई है जो फूल से बच्चे को इतनी बेरहमी से पटक दिया।"
 इतने में माँ के प्रताप से जहां देखो, लड़के ही लड़के नजर आने लगे। बहू ने कहा, "माता जी ! जिनका मैं व्रत करती हूं। यह वही सन्तोषी माता हैं। आज हमारे जीवन की जो बगिया महक रही है, वह सब इनकी कृपा का फल है।"
बहू के मुख से ऐसे वचनों को सुनकर झट से सारे घर के किवाड़ व खिडकियां खोल देती है। घर का प्रत्येक सदस्य सन्तोषी माता के चरणों में आ गिरा। अब वे सारे विनती कर कहने लगे, "हे जगत जननी ! हम मूर्ख हैं, अबोध हैं, अज्ञानी है, नादान हैं। हमने आपका व्रत व उद्यापन भंग करने का घोर अपराध व पाप किया है। तुम्हारी महिमा को हम नहीं जानते थे। हे माता! आप हमें अपना बच्चा जानकर हमारे अक्षम्य अपराधों को क्षमा करें।"
 उनके इस प्रकार पश्चाताप व क्षमा याचना करने पर सन्तोषी माता सब पर प्रसन्न हुई और आशीर्वाद प्रदान किया। सन्तोषी माता ने जैसा फल बहू को दिया। वैसा ही अपने प्रत्येक भक्त को दे। जो भी प्राणी उनके व्रत कथा को पढ़े या सुने उनके सभी मनोरथ पूर्ण हों।
बोलो करुणामयी सन्तोषी माता की जय ! दुख निवारणी सन्तोषी माता की जय।

धन्यवाद।


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