श्री रविवार व्रत कथा

जय माता दी। दोस्तों .......

व्रत का महत्व -

यह व्रत परम गौरवदाता है। इसे करने से राज्य सभा में मान प्राप्त होता है, सभी प्रकार के नेत्र रोग दूर हो जाते हैं। शत्रुओं का नाश होता है और धन संपत्ति का लाभ होता है। यह सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला उत्तम व्रत है। इस व्रत को नियमित रूप से करने से दु:ख दरिद्र एवं कुष्ठ जैसे असाध्य रोगों से छुटकारा मिल जाता है।

Shri Ravivaar Vrat katha
Shri Ravivaar Vrat katha

पूजन विधि व पूजन सामग्री -

बारह महीनों में बारह सूर्य के नाम स्मरण करते हुए पूजा की जाती है। बारह मासों का अर्ध्य नैवैद्य और आसन का विधान भी पृथक-पृथक है। प्रत्येक माह के पूजन के लिए पूजन सामग्री भी पृथक-पृथक ही प्रयुक्त होती है।
इस व्रत में नमक का भोजन, तेल एवं अन्य सभी प्रकार के तामसी भोजन करना निषेध है। इस व्रत में पारण को, फलाहार करने वाले को सूर्य छिपने से पहले ही भोजन कर लेना चाहिए।
यदि किसी कारणवश व्रत खोलने से पूर्व ही सूर्य छिप जाए, तो अगले रोज सूर्य निकलने पर सूर्य देव के दर्शन करके, अर्ध्य देकर व्रत खोलना चाहिए। इस व्रत में पारण अथवा फलाहार एक ही समय करने का विधान है। व्रत के अन्त में पूजन के उपरान्त कथा सुननी चाहिए|
मंत्र
सूर्य व्रतं करिष्यमि, यावहर्षो दिवाकर।
व्रतं सम्पूर्णतां यातु त्वत्सादा प्रभाकर।।
उपरोक्त मन्त्र नियम हेतु दिया गया है। ब्रह्मा मुहूर्त में उठकर नदी में स्नान एवं पितृ तर्पण  करके साफ-सुथरे स्थान को गोबर से लीपकर सूर्य भगवान की पूजा करनी चाहिए। उसी स्थान पर तांबे के पतरे पर लाल चंदन से 12 दलों का कमल बनाएं। उसी स्थान पर बना कमल रखकर सूर्य देव की पूजा-अर्चना करनी चाहिए।
 एक बार की बात है कि मान्धाता ने महर्षि वशिष्ठ से कहा,"हे मुनि श्रेष्ठ! मैं आपके मुख- कमल से सर्व रोग नाशक, पापनाशक एवं परम कल्याणकारी रविवार व्रत कथा पूजन, अर्ध्य, आसान एवं नैवेद्य सहित सुनने की अपने मन में विशेष उत्कण्ठा रखता हूं। आप कृपा करके विस्तार से कहिए।"
मान्धाता के मुख से ऐसे वचनों को सुनकर महर्षि वशिष्ठ जी ने कहा, "हे राजन् ! जिनके उदय होते समय सुर-असुर सभी प्रणाम करते हैं, उन भगवान भास्कर की कथा यज्ञ, तप, दान एवं तीर्थ करने के समान फलदायी है। अगहन मास में यदि यह व्रत किया जाए, तो विशेष रूप से हितकारी होगा।

सूर्य देव के बारह नामों की पूजन विधि -

अगहन (मार्गशीर्ष) -

इस मास में पित्रों का पूजन करने का विधान है। नारियल से अर्ध्य, घी एवं गुड़ सहित अध्यतों का नैवेद्य दिया जाता है। तुलसी के 3 पत्ते खाकर जितेन्द्रिय रहकर सुपात्र ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। साथ ही अपनी सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा भी देनी चाहिए।

 पौष -

 इस मास में देवाधिदेव विष्णु भगवान की पूजा का विधान है। खिचड़ी का नैवैद्य एवं जम्भीरी नींबू का अर्ध्य  देकर तीन पत्र घी खाया जाता है। घी युक्त भोजन ब्राह्मणों को कराना अति उत्तम माना गया है।

माघ -

इस मास में वरुण नामक सूर्य देव की पूजा का विधान है। उनकी पूजा करके घी, गुड़, तेल का भोजन ब्राह्मण को खिलाकर यथाशक्ति दक्षिणा देनी चाहिए। केले का फल नैवेद्य देकर उसी से अर्ध्य दिया जाता है। अन्त में तीन मुट्ठी तिल खाने चाहिए।

 फाल्गुन -

 इस महीने में सूर्य देव की पूजा जम्भीरी नींबू से अर्ध्य देकर करने का विधान है। तीन पत्र दही का सेवन कर नैवेद्य  में घी सहित चावलों का दान करना चाहिए और उन्हीं का भोजन ब्राह्मण को कराना चाहिए।

 चैत्र -

इस मास में भानु की पूजा का विधान है। घी मिश्रित अन्न का नैवेद्य अनार से अर्ध्य देकर तथा तीन पत्र दूध पीकर, मिष्ठान का भोजन दक्षिणा सहित किसी सुपात्र ब्राह्मण को दें।

वैशाख -

इस महीने में तपन नामक सूर्य की पूजा एवं सघृत माष (उड़द) से नैवेद्य, दाख के फल से अर्ध्य, गोबर का आसान और घी व दक्षिणा सहित माण (शहद) का दान करना चाहिए।

ज्येष्ठ -

इस  माह में इन्द्र की पूजा का विधान है। दही से सने सत्तू का नैवेद्य ओर आम से अर्ध्य देकर,  तीन चुल्लू जल का आचमन करके दही व चावल का भोजन ब्राह्मण को कराना चाहिए।

आषाढ़ -

इस महीने में रवि की पूजा कर के चिउड़े का भोजन ब्राह्मण को प्रदान कर तीन मिर्च खाकर व्रत करने का विधान है।

श्रावण -

इस महीने में गर्मास्तभान की पूजा करने का विधान है। त्रपुल फल का अर्ध्य देकर तीन मुट्ठी सत्तू का भोजन करना चाहिए। किसी सुपात्र ब्राह्मण को दक्षिणा सहित भोजन कराना चाहिए।

भाद्रपद -

इस मास में यम नामक सूर्य की पूजा कुम्हड़ा (सीताफल), घी, चावल का नैवैद्य  एवं गौमूत्र का पान करके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।

अश्विन -

इस महीने मे हिरण्येता नामक सूर्य देव की पूजा करने का विधान है।

 कार्तिक -

इस माह में दिवाकर नामक सूर्य देव की पूजा करने का विधान है। उनकी पूजा में केले के फल एवं खीर का नैवेद्य देकर  फिर खीर का भोजन करना चाहिए।

व्रत कथा -

एक बार जब भगवान श्री कृष्ण ने मथुरा से पलायन किया और त्रैलोक्य समृद्धियों से परिपूर्ण द्वारिकापुरी का  समुद्र तट पर निर्माण कराया, तो महर्षि दुर्वासा को इसे  देखने की प्रबल अभिलाषा हो उठी।
वे द्वारिकापुरी पहुंचे। जब भगवान श्री कृष्ण को उनके शुभ आगमन का पता लगा, तो वह स्वंय नगर से बाहर आ गए। उनको अपने महल में लाकर अर्ध्य, पाद्य, आसन एवं भोजन से विधिवत उनकी पूजा की।
जब महर्षि दुर्वासा और भगवान श्रीकृष्ण भोजन के उपरान्त आपस में बातें कर रहे थे तो भगवान के पुत्र साम्ब ने  आकर महर्षि दुर्वासा का मजाक उड़ाया। इससे दुर्वासा ऋषि को काफी क्रोध आया, लेकिन भगवान श्री कृष्ण के कारण वह उससे कुछ नहीं कह सके।
यहां से चलकर  महर्षि ने सारी घटना देवर्षि नारद जी को कही और कहा, "हे देवर्षि ! आप जब प्रभास क्षेत्र को जाओ, तो साम्ब को नैतिक शिक्षा देना।"
यह सुनकर देवर्षि नारद द्वारिका को गए और भगवान श्री कृष्ण जी से कहा, "अपनी सेना मुझे दिखाइए।"
भगवान श्री कृष्ण ने वैसा ही किया। सेना को देखकर देवर्षि नारद ने कहा, "इस सेना में साम्ब नहीं है। मैं द्वारिकापुरी से शीघ्र ही साम्ब को लेकर आता हूँ।"
यह कहकर नारद जी श्रृंगार युक्त, कामदेव के तुल्य सुन्दर, श्रेष्ठ जाम्बवती पुत्र साम्ब को ले आए। अति रूपवती, भगवान श्रीकृष्ण की रानियाँ साम्ब को देख कर परस्पर चुम्बन करने लगीं। इस पर नारद जी ने भगवान श्री कृष्ण से कहा, "यह साम्ब दुश्चरित है।"
नारद जी के वचन सुनकर भगवान श्री कृष्ण को अपने पुत्र पर बहुत क्रोध आया। वह कहने लगे, "हे नराधम साम्ब ! तुम कुष्ठ रोग से पीड़ित होओगे।"
साम्ब तुरन्त कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गए। तब साम्ब ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा, "प्रभु मुझे यह किस कारण से शाप दे डाला?"
भगवान श्री कृष्ण ने अपनी शक्ति से विचार करके कहा, "यह श्राप तुम्हें दुर्वासा ऋषि का अपमान करने से मिला है। फिर भी मैं तुम पर कृपा करके कहता हूँ, तुम कुष्ठ नाशक सूर्य देव का व्रत करो।"
साम्ब ने विनम्रता पूर्वक कहा, "भगवान ! इस सर्व फलप्रद व्रत को कैसे किया जाना चाहिए ?"
भगवान श्री कृष्ण ने साम्ब पर कृपा करके कहा, "क्वार के मास में जब रविवार हो, तभी से स्त्री-पुरुष इस व्रत को वर्ष भर तक करें। गोबर से पृथ्वी में गोल मण्डल बनाकर लाल पुष्प एवं लाल अक्षत से सूर्य देव को निम्नांकित मन्त्र से अर्ध्य प्रदान करना चाहिए।
मन्त्र
यथाज्ञा विमलास्सर्वास्सूर्य भास्कर भानुभि।
तथा शास्सकलां सहयगुरू नित्यम् मर्माचरत।।

व्रत का उद्यापन -

सभी व्रतों को समाप्त करके उद्यापन करना चाहिए। शुक्र के ग्रह में जाकर उनके चरणों में प्रणाम करके कहें, "प्रभु ! मैं उद्यापन करूंगा, मेरे घर चलिए।"
यह कहकर माशा पर स्वर्ण से सूर्य देव की प्रतिमा बनाकर पंच रत्न सहित छिद्र रहित कलश स्थापित करें। इस पर चावलों से पूरित ताम्रपत्र रखें तथा लाल वस्त्र से ढककर पुष्पमाला से चेष्टित करना चाहिए। अग्नयन्तार पूर्वक पंचामृत से स्नान कराकर प्रतिष्ठा करके चन्दन, कुसुम व अनेक भाँति के पुष्पों से सजाकर अच्छा रेशमी कपड़ा, कमण्डल एवं जूता किसी सुपात्र ब्राह्मण को देना चाहिए।
शिव के पार्श्व में तीन वर्धनी स्थापित करके दो कपड़े संज्ञा के निमित्त दें। कमल के प्रति पात्र सूर्य के 12 नामों से (पित्र, विष्णु, वरुण, सूर्य, भानु, तपन, इन्द्र, रवि, गर्मास्तभान, यम, हिरण्येता, दिनकर) पूजा करनी चाहिए। बीच में संध्या सहित सहस किरण की सुपारी, दीप, घी व नैवेद्य से पूजन करके नारियल का अर्ध्य निम्नांकित मन्त्र द्वारा देना चाहिए।
अर्ध्य मन्त्र
नमरसहन्त किरण सर्वव्याधि विनाशन।
ग्रहणर्ध्य मधादत संज्ञया सहितो रसे।।
उपरोक्त मन्त्र से अर्ध्य प्रदान करके आरती की पूजा का संकल्प करना चाहिए। अन्त में प्रसन्न करके निम्नवत् प्रार्थना करनी चाहिए।
मन्त्र
"मन्त्रहीन, क्रियाहीन, भक्तिहीन तु यत्कृताम।
तत्सर्वसम्पूर्णता यातु भूमिदेव प्रसीदतः।।

धन्यवाद।


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