शनिवार व्रत कथा - Shanivaar Vrat, Katha, aaratee
शनिवार व्रत का महत्व - shanivaar vrat ka mahatv
इस व्रत को लोग क्रूर ग्रह की शान्ति के लिए ही नहीं, बल्कि उसके सहकर्मी राहू एवं केतु की शान्ति के लिए भी किया करते हैं। यह व्रत कुछ गम्भीर किस्म का है। कुछ लोग भगवान श्री सदाशिव जी महाराज की प्रसन्नता के लिए भी शनिवार का व्रत रखते हैं
इस व्रत को श्रावण मास में शुक्ल पक्ष में आरम्भ किया जाता है। इस व्रत को काफी प्रभावकारी माना गया है। इस व्रत को करने वाला इस संसार में सब प्रकार के सुखों को भोगता हुआ अन्त में मोक्ष को प्राप्त होता है।
Shanivaar Vrat Katha |
शनिवार व्रत की पूजन सामग्री - shanivaar vrat kee poojan saamagree
इस व्रत को करने के लिए निम्नांकित पूजन सामग्री की आवश्यकता होती है
1.काले फूल 2.काला-चन्दन 3.काले अक्षत 4.काला कपड़ा 5.कच्चा सूत 6.काले तिल 7.काली उड़द 8.काले जौ।
शनिवार व्रत की पूजन विधि - shanivaar vrat kee poojan vidhi
इस व्रत को करने के लिए शनिवार को प्रात:काल उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर शनि देव का ध्यान करके संकल्प करना चाहिए। पूजन के लिए राहु-केतु की लोहे अथवा शीशे की प्रतिमाएं बनवाकर उनकी पूजा करनी चाहिए। यदि पूजन पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर किया जाए तो अति उत्तम है।काले फूल, काले अक्षत, काले वस्त्र एवं काले चन्दन का प्रयोग करना चाहिए।
पूजन के उपरान्त पीपल वृक्ष की सात बार परिक्रमा करनी चाहिए। परिक्रमा के उपरान्त पीपल के वृक्ष में कच्चा सूत लपेटना चाहिए। तथा शनि भगवान से अपने कल्याण के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। लोहे के कटोरे में कडुवा तेल भरकर काले रंग के तिल अथवा काली चीजे दान करनी चाहिए। यदि सम्भव हो सके तो काला कपड़ा, काली गाय, काली बकरी अथवा काले लोहे के बर्तन दान करें। यदि सम्भव हो तो साथ काली गाय दान में देनी चाहिए।
शनिवा व्रत की कथा - shanivaar vrat kee katha
अत्यन्त प्राचीन काल की बात है कि राज ज्योतिषियों ने महाराज दशरथ को बताया कि जब शनि ग्रह कृत्तिका को भेदकर रोहिणी पर आयेंगे तो पृथ्वी पर दस वर्षों तक भीषण अकाल पड़ेगा। लोग अन्न जल के अभाव से मरने लगेंगे और हर तरफ त्राहि-त्राहि मच जाएगी।
महाराज दशरथ ज्योतिषियों की बात सुनकर बहुत चिन्तित हुए। उन्होंने अपने गुरु महर्षि वशिष्ठ से इसके निवारण का उपाय पूछा। लेकिन उन्हें भी इसके निवारण का कोई उपाय ज्ञात न था। महाराज दशरथ निराश होना नहीं जानते थे। उन्होंने अपनी सेना सजाई और नक्षत्र लोक पर चढ़ाई कर दी।
जैसे ही शनिदेव कृत्तिका के पश्चात रोहिणी पर आने को तैयार हुए तो महाराज दशरथ ने उनका मार्ग रोक दिया। शनिदेव को आज तक राजा दशरथ जैसे पराक्रमी को देखने का सौभाग्य प्राप्त न हो सका था। उन्होंने प्रसन्न होकर कहा, राजेश्वर! मैं तुम्हारे इस अलौकिक तेज एवं पराक्रम से बहुत प्रसन्न हूँ। मेरे सम्मुख आज तक जितने भी सुर, असुर एवं मनुष्य आये हैं, सभी जल गए हैं, लेकिन तुम अपने अदम्य तेज एवं उग्र तप के कारण बच गए हो। मैं तुमसे प्रसन्न हूं। तुम मुझसे जो भी वरदान चाहो मांग सकते हो।
शनि देव के मुख से ऐसे वचनों को सुनकर महाराज दशरथ ने कहा, महाराजा! आप रोहिणी पर न जाएं, यही मेरी प्रार्थना है।"
शनि देव ने महाराज दशरथ की यह प्रार्थना स्वीकार कर ली और उन्हें पृथ्वी का दु:ख दरिद्र दूर करने वाले शनिवार के व्रत की विधि बतलाई तथा कहने लगे, ये लोग जो कि मेरे (शनि ) के कारण अथवा मेरे मित्र राहू व केतु के कारण कष्ट भोग रहे हैं, उनकी रक्षा यह व्रत करेगा। इस व्रत के करने से उनकी विपत्तियाँ दूर हो जायेंगी।
इसके पश्चात महाराज दशरथ नक्षत्र लोक से अयोध्या वापिस लौट आए। उन्होंने अपने राज्य में शनिवार के व्रत का खूब प्रचार किया तभी से इस व्रत का प्रचलन है। शनि ग्रह के अनिष्ट को भी यह कथा कम करती है।
शनि देव जी की आरती - shani dev jee kee aaratee
जय जय रविनन्दन, जय दुख भंजन रंजन जय शनि हरे।
जय भुज चारी, धारण कारी, दुष्ट दलन सन्तन हितकारी।। जय.......
तुम होत कुपित, नित करत दु:खित।
धनी को निर्धन, सुखी होत दु:खित।। जय.....
तुम घर अनूप यम का स्वरूप हो,।
करत वधन।। जय.......
तभ नभ जो दस तोहि करत सो बस,।
जय करै जय।। जय.....
महिमा अपार जग मैं तुम्हार,।
जपले देव तन।। जय ......
तव मैन कठिन, नित बरै अगन।
भैंसा वाहन।। जय ......
प्रभु तेज तुम्हारा, अतिहि करारा।
जानत सब छन।। जय.....
प्रभु शनि दान से तुम महान,।
होते हो भगवान।। जय ...
प्रभु उदित नारायण शीश,।
नवा यन धरे चरण।। जय......
जय शनि हरे।।
धन्यवाद।
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