योग पथ पर चलने वाले का सदा कल्याण ही कल्याण है

जय माता दी। दोस्तों .......
( श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय की युगानुकूल व्याख्या )

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि स:।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥(६/४४)

yog ka path
 yog 


शब्दार्थ-

‘‘वह योगी (सः) उस (तेन) पूर्वजन्म के अभ्यास से प्राप्त प्रारब्ध के वश में होने के बावजूद (एव पूर्वाभ्यासेन अपि) विवश होकर (अवशः) परमात्मा की तरफ आकर्षित हो जाता है। [विषय भोग छोड़कर ब्रह्मनिष्ठ हो जाता है] (ह्रियते)। क्योंकि (हि) इस समतारूपी योग का (योगस्य) जिज्ञासु भी (जिज्ञासुः अपि) वेदोक्त कर्मों के फलों का (शब्दब्रह्म) अतिक्रमण कर जाता है (अतिवर्तते)।’’

भावार्थ-

‘‘वह योगभ्रष्ट पूर्वाभ्यास के वेग से विवश हुआ सहज ही भगवान की ओर खिंचा चला आता है तथा योग का जिज्ञासु ऐसा व्यक्ति वैदिक कर्मकाण्डों का- सकाम कर्मों के फलों का उल्लंघन कर जाता है- अर्थात् उनसे श्रेष्ठ माना जाता है।’’

पूर्वाभ्यास का वेग-

जैसा हमारा भूतकाल रहा है, वैसे ही आज हम हैं। यदि हमारी साहित्य लेखन में रुचि रही है, तो कलम उठाने का मन करेगा ही, यदि गायन में हमें आनन्द आता रहा है, तो गाए बिना मन मानेगा नहीं। पूर्वाभ्यास का वेग यही है। पूर्वजन्म के साधना के अभ्यासजन्य संस्कार हमें सहज ही इस ओर खींचते चले जाते हैं। यदि हमारी रुचि आध्यात्मिक रही है- हमारा मन स्वतः ही उन सभी कार्यों में रुचि लेगा, जो भगवद्भक्ति से जुड़े हैं, जिनसे हमारा आत्मिक उत्कर्ष सधता हो। हमारे विचार- चिंतन प्रक्रिया आदि किस दिशा में चल रहे हैं- यह महत्त्वपूर्ण है। हमारे विचार ही हमारे कर्मों के पीछे होते हैं एवं यदि वे अच्छे हैं, विधेयात्मक हैं, हमें सदा भगवद् चर्चा की ओर मोड़ देते हैं, तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमारा पूर्वाभ्यास हमें विवश कर रहा है। कभी- कभी इस जन्म में हम देखते हैं कि अच्छे लोग कष्ट भोग रहे हैं और बुरे जीवन में सुखी हैं, तो हमें एकदम इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच जाना चाहिए कि जो कष्ट झेल रहे हैं, उन्होंने बुरे कर्म किए हैं। बहिरंग के कर्म स्थूल कर्म हैं- हमारे विचार सूक्ष्मकर्म। महत्त्व इन सूक्ष्म कर्मों का है। इसीलिये एक ध्यान योगी कष्ट भोगते हुए भी कभी- कभी तप कर लेता है और आत्मिक सुख प्राप्त कर योग की ओर कदम बढ़ा लेता है।

सहज ही मुड़ जाते हैं परमात्मा की ओर-

यहाँ योगेश्वर ने एक शब्द का प्रयोग किया है ‘‘अवशो अपि’’ अर्थात् परवश होने पर भी- इन्द्रियाँ आदि भोगों में आसक्त होने पर भी पूर्व के अभ्यास के कारण ध्यान योगी सहज ही परमात्मा की ओर खिंचा चला आता है। जितना ध्यानयोग सम्पादित होगा- जितना मन परमात्मा में नियोजित किया जायेगा, सत्संस्कार एकत्र होते चले जायेंगे। यही श्रेष्ठ संस्कार भोगों से आवेश में आए हुए योगभ्रष्ट को खींचकर परमात्मा की ओर मोड़ देते हैं।

योग का जिज्ञासु कर्मकाण्डी से श्रेष्ठ-

आगे भगवान जब कहते हैं कि समबुद्धिरूपी योग का जिज्ञासु वैदिक सकाम कर्मों के फल का भी उल्लंघन कर जाता है, तो उनका आशय है- यांत्रिक रूप से मंत्रोच्चारण करने वाले (मात्र लिप सर्विस), अंधविश्वासपूर्वक वैदिक कर्मकाण्ड या अनुष्ठानों का सम्पादन करने वाले से वह व्यक्ति श्रेष्ठ है, जो ध्यानयोग के राजमार्ग पर चल रहा है। इसीलिए वे कहते हैं, जिज्ञासुरपि योगस्य (योग का जिज्ञासु भी) सकाम कर्म करने वाले- तथाकथित कर्मकाण्डी अनुष्ठानों का सम्पादन करने वालों से श्रेष्ठ है- ‘‘शब्दब्रह्मातिवर्तते’’। जिसका मन सूक्ष्मतम स्तर पर भगवत्सत्ता के गुह्यभावों को स्वीकार करने की स्थिति तक परिपक्व हो गया, जिसने उस तृप्ति- तुष्टि-शांति का रसास्वादन कर लिया, जो परमात्मा के साक्षात अनुभव में है तथा जो सत्- चित् - आनंद के सम्पर्क में आ चुका, उसे क्षणिक विषय-सुख अब कैसे प्रभावित करेंगे। अब वह मार्ग से कभी डगमगा नहीं सकता। अब वह और योगभ्रष्ट नहीं हो सकता।

थोड़ा सा भी योग का अनुष्ठान कल्याणकारी है-

यहाँ कर्मकाण्डों की आलोचना नहीं की जा रही। भगवान कह रहे हैं कि कर्मकाण्ड तो मात्र मन की शुद्धि के लिए उपरत होने एवं एकाग्रता की ओर ले जाने के लिए हैं। ध्यान तो उससे भी ऊपर की बात है और उसकी जिज्ञासा यदि बनी रहे, तो वह योग के सर्वोच्च पद पर हमें स्थापित कर देती है। भगवान कितने उदार- विराट हृदय वाले हैं। यह बात इस श्लोक से पता लगती है। जो यहाँ के भोगों की, संग्रह की रुचि सर्वथा मिटा नहीं पाया और पूरी स्फूर्ति के साथ भोग में भी स्वयं को नियोजित नहीं कर पाया, उसकी भी उन्होंने इतनी महत्ता बतायी है। ऐसा संकेत भगवान पहले भी दूसरे अध्याय के चालीसवें श्लोक में कर चुके हैं कि समत्वरूपी योग का आरम्भ भी कभी नष्ट नहीं होता। एक बार बीज डल गया, तो फलीभूत अवश्य होता है। थोड़ा सा भी योग का अनुष्ठान जन्म- मृत्युरूपी महान भय से रक्षा कर कल्याण कर देता है।

धन्यवाद।

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