भक्ति न जाति देखती है न कुल
(भक्ति गाथा)
जय माता दी। दोस्तों ........
हरिभद्र ने जो भी किया उससे गाँव के वातावरण में अनेक सकारात्मक परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों को सभी ने अनुभव किया। लोगों के व्यक्तिगत जीवन से रोग, शोक, संताप समाप्त हुए। पारिवारिक जीवन से कलह, क्लेश व द्वेष घटे, हटे व मिटे। बदलाव सामाजिक जीवन में भी आने का क्रम चल पड़ा। हालाँकि इस क्षेत्र में परिवर्तन की गति अभी धीमी थी। अनेकों कुप्रथाएँ, कुरीतियाँ, रूढ़ियाँ, अंधमान्यताएँ जो जड़ जमाए बैठी थीं, उन्हें धर्म के नाम पर ढोया जा रहा था। इसका एक कारण शायद यह भी था कि इन गाँव के लोगों को संभवतः धर्म का तत्त्व व मर्म पता ही नहीं था।
jagdamba |
ऋषि अंभृण बड़े ही अहोभाव से यह कथा सुना रहे थे। इसे सुनने में सब की गहरी रूचि प्रतीत हो रही थी। क्योंकि सब तरफ मौन, नीरवता, निःस्पंदता का वातावरण संव्याप्त था। शायद सब के सब सुनने के साथ गुन भी रहे थे। जीवन की चेतना के साथ वह सनातन सच जुड़ा है कि सुनने से कहीं ज्यादा सुपरिणाम सत्परिणाम गुनने से यानी कि मनन करने से आते हैं। इसके अलावा भक्ति की कथाओं में सरसता भी कुछ विलक्षण होती है, जो सुनने वालों के मनों को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेती है।
अभी इन क्षणों में यही हो रहा था। आठवर्षीय बालक हरिभद्र की कथा ने सभी को लगभग सम्मोहित सा कर रखा था। वहाँ उपस्थित जनों की कौन कहे, हिमालय के उस पावन क्षेत्र के पर्वत शिखर, वहाँ के वृक्ष-वनस्पति, लताएँ, पशु-पक्षी सभी शान्त हो इस भक्तिसत्य को स्वयं में समाहित कर रहे थे। यह स्थिति काफी देर से बनी हुई थी और अभी पता नहीं कितनी देर तक बनी रहती, लेकिन तभी ऋषि अंभृण की विचार-श्रृंखला में एक अनोखी झंकार हुई और उन्होंने मुस्कराते हुए देवर्षि की ओर देखा। देवर्षि नारद उनके अर्थ को समझ कर भी चुप रहे।
तब फिर ऋषि अंभृण ने अपनी वार्ता को एक नया मोड़ देते हुए कहा-“हे देवर्षि ! सभी के साथ मुझे भी आपके नए भक्ति सूत्र की प्रतीक्षा है। उनकी यह बात सुनकर नारद के होंठों पर बरबस एक स्मित रेखा झलक उठी। वो कहने लगे-“हे ऋषिश्रेष्ठ ! आपका यह कथन मुझे शिरोधार्य है, परन्तु इसी के साथ एक विनम्र अनुरोध आप से भी है।" नारद के ऐसा कहने पर ऋषि अंभृण ने अपने दोनों हाथ जोड़कर माथा झुका लिया और बोले- "हे देवर्षि! आप अनुरोध नहीं आदेश करें। आपका प्रत्येक आदेश मुझे स्वीकार व शिरोधार्य होगा।"
ऋषि अंभृण की इस विनयशीलता ने सभी को मुग्ध कर दिया। देवर्षि स्वयं भी इस पर बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने नए सूत्र का उच्चारण किया-
'नास्ति तेषु जाति विद्या रूप कुलधन क्रियादि भेदः॥७२॥
उनमें (भक्तों में) जाति, विद्या, रूप, कुल, धन और क्रियादि का भेद नहीं है। देवर्षि के इस सूत्र ने सभी के विचारों के द्वार पर एक सर्वथा नई व अनूठी दस्तक दी। ऋषि अंभृण का मन भी इस पर मनन करने लगा। इन कुछ पलों में वह जैसे स्वयं में समाहित होने लगे।
लेकिन देवर्षि नारद के स्वरों ने उनके चिंतन को बाहर की ओर खींचा। जब उनकी दृष्टि देवर्षि की ओर उठी तो वह मुस्कराते हुए बोले-"महर्षि अंभृण इस सूत्र की व्याख्या में आपको ही कुछ कहना है। वैसे भी मेरे मन में बालक हरिभ्रद की कथा अभी भी मीठा रस घोल रही है।" देवर्षि के इस कथन ने ऋषि अंभृण का उत्साहवर्द्धन किया। अपने इसी उत्साह से उत्फुल्ल होकर उन्होंने कहा-"यदि आप सब की सहमति व अनुमति हो तो मैं बालक हरिभद्र के बारे में कुछ और कहना चाहता हूँ।"
"अवश्य! यह तो हम सबके मन की बात है।"-- ऋषि क्रतु ने बड़े सधे स्वर में कहा। सबके मुख पर उनके इस कथन की स्वीकृति स्वभावतः अंकित थी। इससे प्रेरित होकर उन्होंने कहना शुरू किया- "बालक हरिभद्र छोटा अवश्य था, पर भगवती की करुणा से उसकी मेधा, प्रज्ञा व प्रतिभा असाधारण थी। हमारे गुरुकुल के आचार्य व कुलपति महाशाल उसे बड़ा स्नेह करते थे। इसी वजह से उन्होंने बालक हरिभद्र के लिए एक व्यवस्था की थी-उसे ब्राह्मण कुल के अनुरूप संस्कार दिए जाएँ और उचित रीति से उसे विद्याध्ययन कराया जाए।"
"इसके लिए आचार्य महाशाल ने मुझे नियुक्त किया था। आचार्य की आज्ञा को शिरोधार्य करके मैं गाँव जाकर उसे शिक्षा देने लगा। संस्कार तो उसमें स्वाभाविक ही थे। शिक्षा के लिए भी मुझे कुछ अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ा। माँ जगदम्बा जैसे अपने एक अंश से स्वयं उसमें प्रतिभा, मेधा, विद्या बनकर विराजमान थीं। स्वल्प प्रयास से उसे सभी शास्त्रों व विद्याओं का ज्ञान हो गया। अध्ययन पूर्ण हो जाने पर आचार्य महाशाल के नेतृत्व में अनेक वरिष्ठ आचार्यों ने उसकी परीक्षा ली। परीक्षा में सभी उसके उत्तरों व व्यवहार से न केवल संतुष्ट थे, बल्कि सभी उसकी असाधारण प्रतिभा से चमत्कृत थे।"
"लेकिन अपनी इस चमत्कृत कर देने वाली प्रतिभा का हरिभद्र को लेशमात्र भी अभिमान न था। उसका मन तो पूर्णतया भवानी के चरणों में रमा था। जाति, विद्या, रूप, कुल, धन व क्रिया का उसमें कोई गर्व न था। क्योंकि इस थोड़े समय में उसके पास यह सब स्वतः ही हो गया था। जाति, रूप व कुल से तो वह पहले ही श्रेष्ठ था। विद्या, धन व क्रिया इस थोडे काल में उसके लिए स्वतः ही उपस्थित हुए थे। हरिभद्र के लिए तो इन सब का उपयोग केवल लोकसेवा ही था।"
"अब तो वह बिना किसी भेदभाव के गाँव के प्रत्येक बालक-बालिका को पढाने लगा। प्रारम्भ में इसमें अनेकों को अनेक आपत्तियाँ हुईं, पर बाद में सभी को उसे स्वीकार करना ही पड़ा क्योंकि हरिभद्र ने गाँव के सरपंच सहित सभी वरिष्ठ व सम्माननीय जनों से साफसाफ कह दिया कि यदि आपको मेरे कार्यों से असहमति है तो मैं यह गाँव छोड़कर जाने के लिए तैयार हूँ। हरिभद्र गाँव से चला जाए, यह किसी को भी स्वीकार न था क्योंकि गाँव के सब लोग उसे भगवती का वरद पुत्र मानते थे। आचार्य महाशाल का भी उस पर बड़ा स्नेह था। उन्होंने गाँव वालों को समझा रखा था कि हरिभद्र जगदम्बा का प्रिय पुत्र है।"
"इन सब बातों के अलावा हरिभद्र की भक्ति सभी का मन मोहती थी। वह नित्य शाम को देवी भागवत की जो कथा कहता था, उससे सभी की समस्याएँ व प्रश्न स्वयं ही हल हो जाते। लोगों के मन को गहरी शांति मिलती। हरिभद्र की बातों ने उन सबको धीरे-धीरे यह सच समझा दिया कि सामाजिक कुरीतियों व मूढ़ताओं का धार्मिक-आध्यात्मिक जीवन में कोई स्थान नहीं है। जब सभी जगन्माता की संतान हैं तो फिर भेदभाव कैसा? हरिभद्र के भक्तिपूर्ण संग ने उन्हें वापस यह अनुभूति करा दी और फिर तो सब के सब भक्ति के रंग में रँगने लगे।
(क्रमशः)-अखंड ज्योति मई २०१२
धन्यवाद।
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