सोमवार व्रत कथा
जय माता दी। दोस्तों ....
व्रत का महत्व -
वैसे तो सामान्यता यह व्रत चैत्र, वैशाख, श्रावण एवं कार्तिक में भी किया जाता है, लेकिन श्रावण मास में इसका अपना एक विशेष महत्व है। जो कोई भी इस व्रत को धारण करता है अथवा इस कथा को पढ़ता व सुनता है उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। इस व्रत को करने से स्त्रियों को पति व पुत्र का सुख प्राप्त होता है।
somvaar vrat katha |
व्रत की विधि -
यह व्रत सामान्यतः दिन के तीसरे पहर तक होता है। इस व्रत में भोजन का कोई विशेष नियम नहीं है। लेकिन 24 घंटों में केवल एक ही समय भोजन करना चाहिए। सोमवार के व्रत में शिव पार्वती का पूजन किया जाता है। इस व्रत को करने के लिए प्रातः काल ही उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण कर व्रत का संकल्प ग्रहण कर भगवान शिव व पार्वती जी का ध्यान करते हुए अक्षत, बिल्व पत्र एवं पुष्प आदि से भगवान शिव का पूजन करें व गंगाजल चढ़ाएं। दूध, दही, चावल, रोली, फल, प्रसाद आदि अर्पित कर शिव पार्वती का पूजन करना चाहिए।
व्रत की कथा -
बहुत पहले की बात है किसी नगर में एक धनी साहूकार रहता था। उसके घर में धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी। उसके जीवन में यदि कोई चिंता थी तो वह केवल इस बात की कि उसके कोई पुत्र नहीं था। वह रात दिन इसी चिंता में घुला जा रहा था कि उसके पश्चात उसकी जायदाद का वारिस कौन बनेगा ?
वह मन में पुत्र प्राप्ति की कामना लिए प्रत्येक सोमवार को शंकर भगवान का व्रत एवं पूजन किया करता था। सायंकाल शिव मन्दिर में जाकर शिव पार्वती की प्रतिमा के आगे घी का दीपक जलाया करता था। उसकी इस भक्ति को देखकर एक दिन श्री पार्वती जी ने भोले शंकर से कहा, "भगवान ! यह साहूकार आपका अनन्य भक्त है। सदैव आपका पूजन अर्चन सम्पूर्ण श्रद्धा भक्ति के साथ करता है। आपको शीघ्र ही इसकी मनोकामना को पूर्ण करना चाहिए।"
पार्वती जी के मुख से ऐसे वचनों को सुनकर भोले शंकर ने कहा, "हे पार्वती ! यह हवश्व एक कर्मक्षेत्र है। जैसे कृषक खेत में जैसे बीज बोता है, वैसे ही फल काटता है। उसी प्रकार इस विश्व में प्राणी जैसा कर्म करता है, वैसे ही फल भोगता है।"
भोले शंकर की अमृतवाणी को सुनकर माता पार्वती ने अत्यंत आग्रहपूर्वक कहा, "महाराज ! जब यह आपका ऐसा भक्त है तथा यदि इसे किसी किस्म का दुख है, तो उसे शीघ्र ही दूर करना चाहिए। आप तो सदैव अपने भक्तों पर कृपालु बने रहते हैं, उनके कष्टों का निवारण करते हैं। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे, तो मनुष्य आपका व्रत एवं पूजन क्यों करेंगे ?"
पार्वती जी की मनोदशा को जानकर शंकर भगवान बोले, "हे पार्वती ! इस साहूकार का कोई पुत्र नहीं है, यही इसकी चिन्ता का मूल कारण है। इसके भाग्य में पुत्र प्राप्ति का सुख न होने पर भी मैं इसको पुत्र की प्राप्ति का वर देता हूं लेकिन इसका वह पुत्र मात्र 12 वर्ष की अल्पायु में ही इस संसार से विदा हो जाएगा। मैं इससे अधिक कुछ नहीं कर पाऊंगा।"
साहूकार भक्ति भाव से बैठा भगवान शंकर की बातें सुन रहा था। उसे इससे न तो कुछ प्रसन्नता ही हुई और न ही कुछ दुख। वह पूर्ववत् ही भोले शंकर का व्रत व पूजन करता रहा।
कुछ समय बीतने के पश्चात साहूकार की पत्नी गर्भवती हुई और दसवें माह में उसने अति सुन्दर शिशु को जन्म दिया। शिशु जन्म पर साहूकार के घर में अनेक खुशियां मनाई गई लेकिन साहूकार ने नवजात शिशु का जीवन मात्र 12 वर्ष समझकर कोई खास खुशी जाहिर नहीं की। न ही उसने यह रहस्य किसी को बताया।
जब साहूकार का पुत्र 11 वर्ष का हो गया, तो साहूकार की पत्नी ने अपने पुत्र के विवाह करने की इच्छा प्रकट की। इस पर साहूकार ने कहा, "मैं अभी इसका विवाह नहीं करूंगा। सर्वप्रथम अपने पुत्र को पढ़ने के लिए काशी भेजूंगा।"
साहूकार ने लड़के के मामा को बुलाकर उसे बहुत सा धन देते हुए कहा, "तुम इस बालक को काशी जी पढ़ने हेतु ले जाओ। मार्ग में जिस स्थान पर भी रुको यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते जाओ।"
लड़का माता पिता के चरण स्पर्श कर अपने मामा के साथ काशी जी के लिए रवाना हो गया। वे दोनों यज्ञ करते व ब्राह्मणों को भोजन कराते जा रहे थे। मार्ग में उन्हें एक शहर पड़ा। उस शहर में राजकुमारी का विवाह था और दूसरे राजा का राजकुमार जो कि विवाह कराने हेतु बारात लेकर आया था, वह काणा था। उसके पिता को अपने पुत्र के नेत्र विकार की गहन चिन्ता थी कि कहीं वर को देख कन्या के माता-पिता विवाह में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न कर दें।
इस कारण, जब उसने अति सुन्दर सेठ के लड़के को देखा, तो उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि क्यों ने वर स्वागत के समय इस लड़के से वर का काम चलाया जाए। ऐसी मन्त्रणा कर वर के पिता ने लड़के और उसके मामा से बात की तो वह पूर्णतः सहमत हो गए।
शीघ्र ही उस लड़के को वर के कपड़े पहना दिए गए तथा घोड़ी पर बैठा कर दरवाजे के लिए ले गए। समस्त कार्य प्रसन्नता पूर्वक सम्पूर्ण हो गया। अब वर के पिता ने सोचा कि यदि विवाह कार्य भी इसी लड़के से करा लिया जाए, तो क्या बुराई है।
यह सोचकर लड़के के मामा से कहा, "यदि आप अपने भानजे को विवाह व कन्यादान तक के लिए और मना लें तो आपकी बड़ी कृपा होगी और हम इसके बदले में आपको बहुत सा धन देंगे।"
मामा भानजे दोनों सहमत हो गए। विवाह कार्य बहुत अच्छी तरह सम्पन्न हो गया। जाते समय लड़के ने राजकुमारी की चुनरी के पल्लू पर लिख दिया कि तेरा विवाह तो मेरे साथ हुआ है, लेकिन जिसके साथ तुम्हें भेजा जायेगा वह राजकुमार काणा है और मैं काशी जी पढ़ने जा रहा हूं।
लड़के के जाने के बाद जब राजकुमारी ने अपनी सुन्दर चुनरी पर लिखे वाक्य को पढ़ा, तो उसने काणे राजकुमार के साथ जाने से इंकार कर दिया और कहा, "यह मेरा पति नहीं है। मेरा विवाह इसके साथ नहीं हुआ है वह तो काशी जी पढ़ने गए हैं।" राजकुमारी के माता-पिता ने अपनी कन्या को विदा नहीं किया। बारात बिना दुल्हन के वापस लौट गई।
उधर मामा भानजे दोनों काशी जी जा पहुंचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने यज्ञ करना तथा लड़के ने पढ़ना शुरू कर दिया। जब लड़के की आयु पूरे 12 वर्ष की हो गई, तो उस दिन उन्होंने यज्ञ रचाया हुआ था। तभी लड़के ने कहा, "मामा जी ! आज तो मेरी हालत बिगड़ती जा रही है।"
मामा ने कहा, "अन्दर जाकर सो जाओ।" लड़का अन्दर जाकर लेट गया। लेटते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये। जब उसके मामा ने आकर देखा कि लड़का मृत अवस्था में पड़ा है तो वह बड़ा ही दुखी हुआ। उसने सोचा कि यदि मैं अभी रोना पीटना मचा दूंगा, तो यज्ञ का कार्य अधूरा रह जाएगा। उसने शीघ्रमेव यज्ञ का कार्य सम्पन्न कर ब्राह्मणों को विदा करके रोना पीटना शुरू कर दिया।
दैव योग से उसी वक्त भोले शंकर पार्वती जी के साथ उधर से ही आ निकले। जब उन्होंने जोर-जोर से रोने की आवाज सुनी, तो पार्वती जी कहने लगीं, "महाराज ! कोई दुखिया रो रहा है, इसके कष्ट दूर कीजिए।"
जैसे ही शिव पार्वती उसके निकट पहुँचे तो देखा कि एक आदमी किसी बालक की मृत्यु पर विलाप कर रहा है। इसे देखकर पार्वती जी बोली, "भगवान ! यह तो उसी सेठ का लड़का है जो आप के वरदान से हुआ था।"
"हे पार्वती ! इस बालक की आयु इतनी ही थी उसे यह भोग चुका है।" शंकर भगवान ने पार्वती जी से कहा।
पार्वती ने कहा, "हे स्वामी ! इस बालक को चिरायु कीजिए वरना इसके माता-पिता तड़प तड़प कर जान दे देंगे।"
पार्वती जी के बार-बार आग्रह करने पर भोले शंकर ने मृत बालक को पुर्नजीवन का वरदान दिया। वरदान मिलते ही वह पुनर्जीवित हो उठा। शिव पार्वती जी कैलाश पर्वत चले गए। अब दोनों मामा भानजे उसी प्रकार यज्ञ करते तथा ब्राह्मणों को भोजन कराते अपने घर की ओर चल दिए। मार्ग में उसी शहर में आए जहाँ भानजे का विवाह हुआ था। वहाँ आकर उन्होंने यज्ञ आरम्भ किया, तो लड़के के ससुर ने उसे पहचान लिया और अपने महल में ले जाकर उसकी बड़ी खातिर की।साथ ही बहुत से धन, वस्त्राभूषणों, दास-दासियों सहित सादर अपनी पुत्री और दामाद को विदा किया।
जब वे अपने शहर के पास पहुँचे तो मामा ने कहा, "मैं पहले जाकर तुम्हारे घर खबर कर आता हूँ।"जब उस लड़के का मामा घर आया, तो लड़के के माता-पिता घर की छत पर बैठे थे और यह प्रण कर रखा था कि यदि हमारा पुत्र सकुशल लौट आया, तो हम सकुशल नीचे उतर आएंगे अन्यथा छत से कूद के प्राण त्याग देंगे।
इतने में लड़के के मामा ने जाकर उन्हें सन्देश सुनाया, "आपका पुत्र सकुशल लौट आया है।" जब यह सुनकर उन्हें विश्वास नहीं आया तो लड़के के मामा ने उन्हें विश्वास दिलाने के लिए शपथपूर्वक कहा, "आपका पुत्र अपनी स्त्री के साथ बहुत सा धन लेकर लौटा है।"
सेठ को इस बार पूर्ण विश्वास हो गया। वह आनन्द पूर्वक अपने बेटे व पुत्रवधू को ले आया। सभी प्रेम पूर्वक रहने लगे।सेठ अपने परिवार के साथ सब प्रकार के सुखों को भोगता हुआ अन्त में शिवलोक को प्राप्त हुआ।
इसी प्रकार से जो भी सोमवार के व्रत को धारण करता है तथा इस कथा को पढ़ता एवं सुनता है, उसकी सभी मनोकामनाएं भोले शंकर की कृपा से पूर्ण हो जाती हैं।
धन्यवाद।
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