कालसर्प योग की शान्ति विधान
भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, अश्लेषा, मघा एवं मूल नक्षत्र 3, 4, 5, 8, 9, 10, 11, 12, 14, 30 तिथियां सोम, बुध, गुरु शुक्र और शनिवार में से किसी दिन शांति करायें। कुशा या ऊनी वस्त्र के आसन पर बैठकर शुद्धि मंत्र बोले
ॐ अपवितः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपिवा। यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स वाह्माभ्यान्तरः शुचिः।।
- इस मंत्र से श्री गंगाजल का छींटा देकर पुनः तीन बार आचमन करें।
ॐ केशवाय नमः।ॐ नाराणाय नमः। ॐ माधवाय नमः।
संकल्प-
- अर्थात् कर्म के प्रतिदृढ़ निश्चय को ईश्वर के सामने समर्पण करना। तत्पश्चात श्री गणेशादि देवपूजनार्चन, स्वस्ति वाचन, सफेद चंदन का तिलक व कलावा बांधना चाहिए।
द्वादश नागों की स्थापना विधान-
- बारह कलश तांबा या पीतल के लेकर उसमे 12 नाग-नागिन के जोड़े सोने के तथा 12 कच्चे नारियल दूध से भरे जटा वाले रखें।
- आचार्य के लिए दो जोड़ी वस्त्र अदलने-बदलने के लिए हों।
- पूर्ण पात्र के लिए एक पीतल का भगोना, जिसमें पांच किलो चावल भरेंं हों तथा ब्रह्मा विष्णु महेश की सोने या चांदी की प्रतिमायेंं तथा समस्त पूजन सामग्री एकत्रित करें।
वेदी निर्माण-
- कालसर्पयोग की शान्ति के लिए जातक की जन्मकुण्डली के अनुसार ही सम चौरस चौकी पर सफेद या क्रीम कलर का वस्त्र बिछाकर बनाई जाती है।
- कुंडली की लाइनें काजू, बादाम, चिरौंजी आदि से बनाकर जन्मलग्नांकों को पूर्वदिशा में लिखते हैं।
- राशि लग्नांक और ग्रह की स्थापना की जाती है ।
- एक कलश मध्य में रखकर उस पर शिव-पार्वती सहित अनन्त नाग को स्थापित करते हैं।
- पूर्व में वासुकी नाग, आग्नेय में शेषनाग, दक्षिण में पदमनाभ, नैऋत्य में पातक, पश्चिम में शंखपाल, वायव्य में कर्कोटक, उत्तर में कालिया नाग, ईशान में तक्षक नाग एवं शेष स्थान में पदम, कुलिक, शंखनाद नाग स्थापित किए जाते हैं।
- अनन्त भगवान शेषशायी विष्णुजी का लक्ष्मी सहित अलग से आसन बनाया जाता है। पास में ब्राह्मणी सहित ब्रह्माजी तथा तीसरी चौकी पर स्वास्तिक बनाकर उसके ऊपर वरुण कलश ( स्वर्ण कलश या ताम्र कलश ) की स्थापना कर चारों ओर ग्रहों की स्थापना की जाती है।
- कुण्डली के मध्य में वासुकी की स्थापना करते हैं। इस प्रकार दस नागों की स्थापना के बाद शेष दो को राहु-केतु के स्थान पर रख दिया जाता है।
- कालसर्प दोष की शान्ति हेतु मृत्युञ्जय मंत्र जप, राहु- केतु के वैदिक या तान्त्रिक मन्त्र जप, नारायण बली निरन्तर सर्पसूक्त के पाठ के साथ चलता है। इसके लिए अलग-अलग ब्राह्मणों की व्यवस्था की जाती है यह पाठ 11 दिन में पूर्ण होता है। पाठ पूण होने के उपरान्त यजमान को सतीर्थोदक में स्नान कराकर हवन के लिए बैठाया जाता है।
- हवन के पश्चात् यजमान ब्राह्मणों को वस्त्र, स्वर्ण, तुलादान व छायादान करता है।
- इसके पश्चात विप्रोंं को भोजन कराकर उनको दक्षिणा देकर पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करता है।
- कालसर्प योग दोष शान्त होने पर यजमान सुखमय जीवन व्यतीत करता है।
अनन्त वासुकि शंखं, कार्कोटक कालिया कँवलम्।शेषं पद्मनाभं श्वेत एलापत्र धनज्जय तक्षक तथा।।
अनन्ताद्यान्महाकायान् नाना मणिविराजितान्।ध्यायामि चैतान्सर्पान् पातालतलवासिनः।।
सर्पदोष विनाशाय, सर्पान्वन्दे शिवाय नः।शेषाय शिवभूषनाय अनन्ताय नमो नमः।।
एतानि द्वादश नामानि नागानां च महात्मनाम्।पूजयित्वा त्वामि सर्वे कालसर्पयोगं विनाशयः।।
जरत्कारूर्जगद् गौरी मनसा सिद्ध योगिनी।वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी तथा।।
जरत्कारूप्रियाऽऽस्तीक माता विषहरेति च।महाज्ञानयुता चैव सा देवी विश्वपूजिता।।
द्वादशैतानि नामानि पूजाकाले तु यः पठेत्।तस्य नागभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।।
धन्यवाद।
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